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राजा का रोग मिटाया त्रिशूल मारा... और पलभर में वहाँ से अदृश्य हो गयी!
राजा ने घी के दिये जलाये। त्रिशूल का घाव देखा।
लहू नहीं निकला था पर पूरा शरीर कोढ़ रोग से व्याप्त हो उठा था। राजा ने दर्पण में देखा तो वह चौंक उठा।
- नाक दब गया था। - कान लटक गये थे। - उंगलियों के नाखून उखड़ गये थे।
- शरीर पर सफेद दाग उभर आये थे... और उन दाग वाले हिस्से में से पीप बह रहा था। फिर भी राजा को देवी पर गुस्सा नहीं आया।
जीवदया के धर्म पर तिरस्कार का भाव पैदा नहीं हुआ। राजा ने सोचा : 'यह संसार ही ऐसा है... यह सब कर्मों का नाटक है। पापकर्मों का उदय आने पर ऐसा होना आश्चर्य की बात नहीं है। फिर भी मुझे क्यों चिंता करनी चाहिए? मेरी चिंता करनेवाले मेरे गुरुदेव स्वयं बिराजमान तो हैं!'
अभी रात बाकी थी। राजा ने महामंत्री उदयन को बुलवाया।
महामंत्री को बुलवा लाने के लिए अपने अत्यन्त विश्वस्त आदमी को भेजा। राजा नहीं चाहता था कि रात की बात महामंत्री के अलावा किसी को मालूम हो चूंकि दूसरे लोगों को पता लगे तो वे तरह-तरह की बातें फैलाएंगे...गलतफहमी पनपेगी।
"देखो... महाराजा ने अहिंसा धर्म का पालन किया... तो क्या फल मिला? राजा के पूरे शरीर में कोढ़ रोग फैल गया! इसलिए जिनेश्वर देवों का अहिंसा धर्म स्वीकार करने योग्य नहीं है!' __ऐसी कोई गलत धारणा फैले नहीं इसके लिए उदयनमंत्री को अपने शयनखंड में बुलाकर रात को हुई सारी घटना बतायी। अपना शरीर बताया।
महामंत्री उदयन को बहुत दुःख हुआ... साथ ही महाराजा की दृढ़ धर्मभावना के प्रति अत्यंत अहोभाव पैदा हुआ। उन्होंने कहा :
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