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राजा का रोग मिटाया घटना हुई।
आकाश में से एक दिव्य स्त्री राजमहल में राजा के शयनखंड में उतर आई। उसके शरीर में से प्रकाश निकल रहा था... पूरा शयनखंड प्रकाश से भर गया। उस दिव्य स्त्री के हाथ में 'त्रिशूल' नाम का शस्त्र था। उस देवी ने राजा को संबोधित करते हुए कहा : 'राजन्, जरा आँखें खोलकर मेरे सामने तू देख!' राजा ने आँखें खोलीं और देवी के सामने देखा... पूछा : 'आप कौन हैं?' 'मैं कंटकेश्वरी नाम की तेरी गोत्रदेवी हूँ।' 'आनन्द हुआ आपके दर्शन पाकर!'
'राजन मैं बलिदान लेने के लिए आई हूँ... तेरे पहले हुए सभी राजाओं ने मुझे बलिदान दिया है... तुझे भी देना चाहिए | तुझे कुलपरम्परा नहीं तोड़नी चाहिए।'
'देवी, मैनें आपको तीनों दिन नैवैद्य अर्पण किया है।' 'नैवेद्य नहीं चलेगा... पशु चाहिए!' 'इसका अंजाम क्या आएगा मालूम है? मैं तुझे पलक झपकते जलाकर भस्म कर सकती हूँ!' ___'देवी, मेरी बात सुनिये... शांति से मेरा कहना गौर से सुनिए, फिर आपको जो उचित लगे वह कीजिए...
मैंने जिनेश्वर देव का धर्म पाया है। वह सच्चा धर्म है। जिनेश्वर भगवान किसी भी जीव की हिंसा करने की मना करते हैं। मैंने अपनी पूर्वावस्था में अज्ञानतावश जो हिंसा की है... वह भी मेरे दिल में काँटें की भाँति चुभ रही है... एक जीव की हिंसा से भी अनंत-अनंत पाप कर्म बंधते हैं... फिर कसाई होकर सैंकड़ो जीवों की हत्या तो मैं कैसे करूँगा?
देवी, आप को भी इन पशुओं की हिंसा से खुश नहीं होना है। देव-देवी तो दयालु होते हैं... आपको तो जीवहिंसा रोकनी चाहिए।
देवी, मैनें तो जीवहिंसा नहीं करने की प्रतिज्ञा की हुई है... तुम्हें जो करना हो वह कर सकती हो... मैं तो एक भी जीव की हिंसा करनेवाला नहीं! पशुओं का बलिदान देना कभी भी किसी भी हालात में मुझसे नहीं होगा!' यह सुनकर देवी क्रोध के मारे आग सी भभक उठी। उसने कुमारपाल को
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