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देवबोधि की पराजय
आचार्यदेव ने वाग्भट्ट मंत्री की बात को शांति से सुना और कहा : 'वाग्भट्ट, तू तनिक भी चिंता मत कर | उसका उपाय कल प्रवचन में हो जाएगा। तू कल महाराजा को प्रवचन में ले आना।'
वाग्भट्ट ने कहा : 'अवश्य, गुरुदेव! महाराज को ले आऊँगा।'
वाग्भट्ट घर पर गये। भोजन वगैरह से निवृत्त होकर वे राजमहल में महाराजा के पास गये । वाग्भट्ट मंत्री, कुमारपाल के प्रिय और निजी मंत्री थे। वाग्भट्ट बुद्धिशाली और पराक्रमी थे। उनकी वाणी में हमेशा मधुरता का रस घुला रहता था। वे कार्यकुशल मंत्री थे।
कुमारपाल तो उस दिन देवबोधि के दैवी प्रभाव में इस कदर आकर्षित हो गया था कि आने-जाने वाले हर एक के साथ वह देवबोधि की ही चर्चा करता था। वाग्भट्ट ने कुमारपाल को प्रणाम किया और अपने आसन पर बैठे | कुमारपाल ने कहा : ___ 'क्यों वाग्भट्ट? देखा न महात्मा देवबोधि का चमत्कार? जैसे कि साक्षात् देव हो! सही है ना?' _ 'महाराजा, देव भी जिनके चरणों में रहते हैं... उनकी महिमा तो निराली होती है! इन योगीराज की तुलना किस से की जाए यही एक समस्या है! चन्द्र के पास तो सोलह कलाएँ ही होती है जब कि योगी तो सैंकड़ो कलाओं के स्वामी है!' वाग्भट्ट ने बड़ी नम्रता से कहा।
राजा बोला : 'मंत्री, तेरे हेमचन्द्रसूरिजी के पास ऐसी कोई कला है सही? हो तो बात कर।'
मंत्री एकाध पल के लिए विचलित हो उठे। राजा ने 'तेरे हेमचन्द्रसूरि' जो कहा । वह मंत्री को चुभ गया। परन्तु बोलते समय राजा के चेहरे पर सरल स्मित था, इसलिए स्वस्थ होकर मंत्री ने कहा :
'महाराजा, सागर में रत्न तो ढेर सारे होते हैं! आचार्यदेव तो ज्ञान और कलाओं के खजाने रूप हैं।'
कुमारपाल सहसा बोल उठे : 'ठीक है.... तो फिर, कल सबेरे हम उनके पास जाकर पूछेगे। तू यहाँ पर ठीक समय पर आ जाना। हम साथ चलेंगे।'
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