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देवबोधि की पराजय
'महाराजा, मैं अवश्य आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊँगा ।' वाग्भट्ट वहाँ से निकलकर सीधे ही आचार्यदेव के पास गये। गुरुदेव को वंदना करके उन्होंने कहा :
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उपाश्रय में प्रवचन सभा भरी हुई है ।
आचार्यदेव धर्म का उपदेश दे रहे हैं ।
'गुरुदेव, महाराजा ने स्वयं ही कल सबेरे आप के पास आने के लिए कहा है।'
'ठीक है, वाग्भट्ट ! वह आएगा ही । प्रवचन के दौरान उसे वह चमत्कार देखने को मिलेगा कि उस योगी के चमत्कार फीके लगेंगे । मामूली लगेंगे ।'
वाग्भट्ट मंत्री को गुरुदेव पर शत प्रतिशत विश्वास था । उन्होंने गुरुदेव को वंदना की । निश्चिंत होकर अपने घर पर गये ।
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एक हजार स्त्री-पुरुष लीन - तल्लीन होकर उपदेश की गंगा में बह रहे हैं। राजा कुमारपाल आचार्यदेव के सामने बैठे हुए हैं । उपदेश सुनने में एकचित्त हैं। उनके बराबर पीछे वाग्भट्ट मंत्री बैठे हुए हैं ।
एक घंटा बीता और आचार्यदेव जो सात पाट पर बैठे हुए थे... वे पाट एक के बाद एक खिसकने लगी । सातों पाटें खिसक गई। और आचार्यदेव आकाश में बिना किसी सहारे के अधर में बैठे रहे । उपदेश देते रहे ।
राजा कुमारपाल की आँखें विस्फारित हो उठीं । वे आश्चर्य से बोल उठे.... ‘अद्भुत!’
प्रजाजन हर्ष से पुलकित बन गये । गद्गद् हो उठे । वाग्भट्ट मंत्री की आँखें हर्ष के आँसुओं से छलक आई।
राजा सोच रहा है : 'कल देवबोधि को कदली पत्र के आसन पर बैठा हुआ देखा था... वह मौन था । जबकि ये तो बिना किसी आधार के आकाश में-अधर में बैठ कर उपदेश दे रहे हैं। कितनी अद्भुत योगशक्ति है इन महापुरुष में !
राजा ने खड़े होकर विनति की :
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'गुरुदेव, अब आप पाट पर बिराजमान होकर प्रवचन दीजिए। आपकी इस कला के समक्ष तो अच्छे-अच्छे कलाकारों की कलाएँ फीकी पड़ जाएँगी ! महासागर की उफनती - उछलती हुई मौजों के सामने भला ताल-तलैये की लहरों की क्या बिसात?'