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'सिद्धहेम' व्याकरण की रचना
२८ ___ आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजी भी राजसभा में पधारे | उन्होंने रसभरपूर काव्य में राजा सिद्धराज की प्रशंसा को गूंथी। उन्होंने कहा : 'ओ कामधेनु! तू तेरे गोमय रस से धरती का सिंचन कर!
ओ रत्नाकर! तू अपने मोतियों से स्वस्तिक रचा! __ओ चन्द्र! पूर्ण कुंभ बन जा! ओ दिग्गजो...तुम अपनी सुंड उन्नत करके कल्पवृक्ष के पत्तें ले आओ और तोरण लगाओ! वास्तव में सिद्धराज पृथ्वी को जीतकर यहाँ आया है!'
सिद्धराज काव्यरचना सुनकर खुश हो उठा। उसके मन में आचार्यदेव के प्रति प्रेम बढ़ गया। इससे दूसरे धर्म के विद्वान इर्ष्या से जलने लगे। इसमें भी ब्राह्मण पंडित तो मन ही मन कुढ़ने लगे। वे बात-बात में आचार्यदेव को ताना कसने लगे :
'अरे...हेमाचार्य की विद्वत्ता चाहे जितनी हो, पर आखिर वह सब हमारे व्याकरण ग्रन्थों पर आधारित ही है ना?'
उस अरसे में मालवा की धारा नगरी का विशाल ज्ञानभण्डार, सैंकड़ों बैलगाड़ियों में भर कर पाटन आया। उस ज्ञान भण्डार में से, सिद्धराज के हाथों में राजा भोज का लिखा हुआ एक ग्रन्थ आया। जिसका नाम था 'सरस्वती कण्ठभरण।'
इस ग्रन्थ को देखकर राजा सिद्धराज ने सोचा कि 'ऐसा ग्रन्थ क्या मेरे गुजरात का कोई विद्वान नहीं बना सकता? ऐसा ग्रन्थ बनना चाहिए कि उस ग्रन्थ के साथ मेरा नाम जुड़े | ग्रन्थ अमर हो जाएँ... साथ ही साथ मेरा नाम भी अमर हो जाए!'
राजसभा में राजा अपने हाथ में संस्कृत व्याकरण का वह ग्रन्थ 'सरस्वती कण्ठभरण' लेकर बैठा हुआ था। उसने राजसभा में आसीन अनेक विद्वानों की ओर देखा। राजा ने उत्सुकता के साथ कहा : __ 'राजा भोज के द्वारा रचित संस्कृत व्याकरण जैसा शास्त्र, क्या गुजरात का विद्वान निर्मित नहीं कर सकता? ऐसा कोई विद्वान मेरी इस राजसभा में मौजूद नहीं है क्या? क्या ऐसा विद्वान गुजरात में पैदा नहीं हुआ?'
सारी राजसभा सकते में आ गई। सभी धुरंधर विद्वान नीची निगाह किये हुए जमीन कुरेदने लगे। सभी के चेहरे की चमक राजा की सवालिया निगाहों की तीक्ष्णता से चूर-चूर हो चुकी थी।
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