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'सिद्धहेम' व्याकरण की रचना ___ 'सिद्धराज, तुमने गजराज को रोक क्यों दिया? उसे एकदम गति से आगे बढ़ाओ ताकि उसे देखकर सभी दिग्गज संत्रस्त होकर भाग जाएँ। चूकि अब तो पृथ्वी का सारा भार तुमने उठा लिया है! फिर उन दिग्गजों की जरूरत क्या है?'
आचार्यदेव की कल्पना शक्ति से और शीघ्र की हई काव्यरचना से राजा बड़ा प्रभावित हुआ, साथ ही प्रसन्न भी। उसने आचार्यदेव से प्रार्थना की :
'गुरुदेव, मुझ पर कृपा करके, प्रतिदिन आप राजसभा में पधारियेगा।' 'राजन्, अनुकूलता के मुताबिक तुम्हारे पास आने के लिए कोशिश करेंगे।' आचार्यदेव ने प्रसन्न वदन और प्रोत्फुल्ल नयन से 'धर्मलाभ' के आशीर्वाद दिये और आगे चल दिये।
राजा सिद्धराज के साथ यह पहली मुलाकात थी। परन्तु राजा के दिल में आचार्यदेव बस गये! इसके बाद तो अक्सर आचार्यदेव सिद्धराज की राजसभा में जाने लगे। आचार्यदेव की मधुर और प्रभावशाली वाणी का राजा पर काफी असर होने लगा। जैनधर्म की महानता और श्रेष्ठता उसकी समझ में आई। वह जैनधर्म की ओर काफी हद तक आकर्षित हुआ। विक्रम संवत ११९३ का समय था।
राजा सिद्धराज ने मालवा (मध्य भारत) के राजा यशोवर्म को पराजित करके... पाटन में प्रवेश किया था। बरसों का उसका सपना साकार हुआ था। उसे केवल मालवा के राज्य का ही आकर्षण नहीं था, उसे मालवा की कला, साहित्य, संस्कार भी अच्छे लगते थे। वह सब उसे गुजरात में लाना था। गुजरात को संस्कार और साहित्य से समृद्ध करना था | पाटन को कलानगरी बनाने की उसकी ख्वाहिश थी।
सिद्धराज की महत्वाकांक्षा थी गुजरात को विशाल साम्राज्य में परिवर्तित करने की। उसे खुद चक्रवर्ती महाराजा बनने के अरमान थे। दुनियाभर के विद्वान गुजरात की ओर आकर्षित हों, वैसा माहौल उसे रचाना था। गुजरात की राजधानी पाटन को सरस्वती की क्रीड़ास्थली बनाना था। वैसे भी पाटन सरस्वती नदी के किनारे पर ही बसा हुआ था।
पाटन की प्रजा ने सिद्धराज का शानदार स्वागत किया। राजसभा का आयोजन हुआ।
सभी धर्मों के विद्वान, साधु-संन्यासी-फकीर राजा को आशीर्वाद देने के लिए राजभवन में आने लगे।
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