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देवी प्रसन्न होती है ! ___ सोमचन्द्र मुनि ने कहा : 'पूज्यवर, यह सब गुरुदेव की परम कृपा का ही परिणाम है। परमात्मा का अचिन्त्य अनुग्रह है!'
देवेन्द्रसूरिजी ने कहा : 'तुम्हारी बात सही है... पर गुरुकृपा और परमात्मा का अनुग्रह सभी जीवों को तो नहीं मिल पाता है ना? पुण्यशाली और भाग्यशाली जीव को ही प्राप्त होता है।' __ मधुर बातों में खोये हुए दोनों मित्र कब नींद की गोद में सरक गये... इसका पता ही नहीं रहा! विहार की थकान तो थी ही। इस पर लम्बी विहारयात्रा का अन्त हो जाने की निश्चिन्तता भी मिल गयी थी।
ब्रह्म मुहूर्त में जब दोनों मित्र जगे.... श्री नमस्कार महामंत्र का स्मरण कर के आँखें खोली...तो - खेरालु गाँव नहीं था! - चार दीवारों का मकान नहीं था! - चौतरफ पहाड़ थे! - बड़े-बड़े पेड़ खड़े थे। - बादलों से रहित आकाश बहुत नजदीक लग रहा था! सोमचन्द्रमुनि ने पूछा : 'आचार्यदेव, ये हम कहाँ आ गये? और वे वृद्ध विद्यासिद्ध महापुरुष, कहाँ चले गये?'
आचार्यश्री देवेन्द्रसूरिजी चारों ओर देख रहे थे। उन्होंने कहा : 'लगता है हम गिरनार पर्वत पर आ गये हैं...! कोई विद्याशक्ति हमें यहाँ उठा लाई है...! यह निःशंक बात है!' __ दोनों मित्र खड़े हुए। इर्दगिर्द चक्कर लगाकर वापस उसी घटादार पेड़ के नीचे आकार खड़े हुए।
अभी सूर्योदय हुआ नहीं था। परन्तु यकायक उन्होंने अपने पास एक तेज का वर्तुल निर्मित होते देखा। तीव्र प्रकाश फैल रहा था। दोनों मित्रों के लिए यह बड़ी ताज्जुबी की बात थी!
तेजस्वी दिव्यप्रभा से पूरित एक देवी प्रगट हुई। वह दोनों महात्माओं के समीप आई। उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी। आँखों से वात्सल्य की बारिश हो रही थी। वह बोली :
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