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देवी प्रसन्न होती है !
'मैं शासनदेवी हूँ। तुम्हारे उत्कृष्ट भाग्य के कारण खिंची-खिंची यहाँ पर आई हूँ।'
‘पर हमें खेरालु से यहाँ पर कौन ले आया?' सोमचन्द्रमुनि अपनी जिज्ञासा को दबा नहीं सके। 'मैं ही ले आई हूँ तुम्हें यहाँ पर!'
और वे जो हमारे साथ खेरालु के उपाश्रय में रात बिताने को रुके हुए थे... वे महापुरुष कहाँ चले गये? _ 'वह वृद्ध तपस्वी का रूप मेरी ही माया थी। तुम्हारे मन में विद्याओं की तीव्र अभीप्सा देखकर मैं स्वयं ही तुम्हें उस रूप में मिली थी। मैं ही तुम्हें यहाँ गिरनार महातीर्थ के ऊँचे शिखर पर ले आई हूँ| इस तीर्थ के अधिपति हैं, भगवान नेमनाथ!
महात्मा, यह पहाड़ अद्भुत है। यहाँ पर अनेक दिव्य औषधियों के खजाने हैं। यहाँ पर की हुई मंत्र साधना तुरन्त सिद्ध होती है...। मैं तुम्हें कुछ दिव्य औषधियाँ बताऊँगी... और सुनने मात्र से ही सिद्ध हो जाएँ, वैसे दो मंत्र दूंगी!
- एक मंत्र से देवों का आह्वान किया जा सकता है। -- दूसरे मंत्र से राजा-महाराजा वश में हो सकते हैं।
तुम्हें ये दो मंत्र देती हूँ। तुम सावधान होकर...एकाग्र मन से उन मंत्रों को सुनना।'
दोनों महात्माओं को शासनदेवी ने दो मंत्र सुनाए । सुनाकर कहा। 'चलो, मैं तुम्हें कुछ दिव्य औषधियों का निर्देश करती हूँ। तुम उन्हें इकट्ठी कर लेना । वे औषधियाँ अमुक-अमुक रोगों पर तत्काल असर करनेवाली हैं।'
शासनदेवी औषधियाँ बताने लगी...उनके प्रयोग-उपयोग समझाने लगी। यों करते-करते.... कई तरह की औषधियाँ उन दोनों महात्माओं ने एकत्र कर लीं। अभी सूर्योदय हुआ नहीं था। शासनदेवी ने उन दोनों महात्माओं से कहा : 'मैंने तुम्हें जो दो मंत्र सुनाये थे.... वे मंत्र कहीं तुम भूल न जाओ.... इसके लिए यह अमृत तुम पी लो।'
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