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पाँच प्रसंग
१४१ __ सैनिकों ने जरा गुस्से में कहा... 'अरे... अभी अंदर तो हम भी नहीं जा सकते। समझे? कड़ा नियम है यहाँ का।'
सेठ निराश होकर बोले... 'मुहूर्त चला जाएगा... मेरा काम नहीं हो सकेगा।' सैनिकों ने कुछ जवाब नहीं दिया।
सेठ मंदिर के चौतरे पर बैठे रहे। __ मुहूर्त का समय गुजर गया। महाराजा कुमारपाल मंदिर से बाहर आये। साथ ही गुरुदेव भी रंगमण्डप में पधारे। उन्होंने काना श्रावक को देखा... 'अरे... काना श्रावक। तुम अन्दर क्यों नहीं आये? बाहर क्यों बैठे रहे?' तुम्हारी मूर्ति का अंजन नहीं करवाना था क्या?'
कुमारपाल वहाँ से रवाना हो गये। काना सेठ ने गुरुदेव के चरणों में वंदना करके भर्रायी आवाज में कहा :
'गुरुदेव, मैं बड़ा अभागा हूँ | थोडी देर हो गई और राजा के सैनिकों ने मुझे भीतर आने ही नहीं दिया। मैंने उन्हें बहुत समझाया पर उनके कानों पर जूं तक रेंगी नहीं... प्रभु... मेरा कार्य अधूरा रह गया।' काना सेठ रो पड़े।
गुरुदेव ने काना सेठ के सिर पर हाथ रखते हुए कहा : 'काना, तुम चिन्ता मत करो। तुम्हारा कार्य होगा। जरूर होगा। सैनिक बेचारे नौकर आदमी । वे तो राजा की आज्ञा के सामने लाचार! उन्हें तो आज्ञा का पालन करना होता है।'
'गुरुदेव... पर शुभ मुहूर्त तो चला गया?' 'काना, शुभ मुहूर्त चला गया... पर श्रेष्ठमुहूर्त अब आ रहा है। चलो, हम खुले आकाश के नीचे चलें।' काना का हाथ पकड़कर गुरुदेव मंदिर के बाहरी प्रांगण में पधारे।
गुरुदेव ने आकाश में देखा । उन्हें जो नक्षत्र चाहिए था... उसका उदय हो चुका था। उन्होंने काना के सामने देखते हुए कहा : ___ 'काना, ज्योतिषि के दिये हुए मुहूर्त में यदि तुम्हारी मूर्ति को अंजन किया होता तो उसका आयुष्य केवल तीन साल का होता... पर अभी इस वक्त जो नक्षत्र आकाश में है... उस में तुम्हारी मूर्ति को अंजन करने से वह दीर्घ समय तक रहेगी और उसका प्रभाव भी फैलेगा।'
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