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पाँच प्रसंग
काना सेठ का मन मयूर नाच उठा। उन्होंने गुरुदेव से कहा : 'कृपालु, आप पर मेरी पूर्ण श्रद्धा है... मेरे लिए तो आपका वचन यानी भगवान का वचन! आपकी आज्ञा शिरोधार्य!'
गुरुदेव काना सेठ का हाथ पकड़कर उसे मंदिर में ले गये। पुजारी ने 'अंजन' की सारी तैयारी की। काना सेठ ने लाई सामग्री पुजारी को दे दी।
श्रेष्ठ मुहूर्त में काना सेठ द्वारा निर्मित मूर्ति की अंजन विधि संपन्न हुई। काना सेठ मूर्ति को वटादरा ले गये और बड़ी धूमधाम से मंदिरजी में मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई।
गुरुदेव का भविष्य कथन सही सिद्ध हुआ।
कई बरसों तक मंदिर में वह मूर्ति बिराजमान रही और सैंकड़ो लोगों ने उसका दिव्य प्रभाव अनुभव किया।
० ० ० दूसरा प्रसंग है सोमनाथ पाटन का।
सोमनाथ पाटन में कुमारपाल ने भव्य जिनमंदिर बनवाया था। उस मंदिर में परमात्मा की पूजा वगैरह के लिए 'बृहस्पति' नामक तपस्वी ब्राह्मण को नियुक्त किया था।
बृहस्पति वैसे तो अच्छी तरह मंदिर को सम्हालता था। पर एक दिन अणहिल्लपुर पाटन से आये यात्रिकों के साथ उसकी तू-तू... मैं-मैं हो गई। गलत ढंग से वह वादविवाद पर उतर आया ।
उसने जैन धर्म की निंदा की। ब्राह्मण पद्धति से मंदिर में भगवान की पूजा की।
उस यात्रिक ने यह बात पाटन जाकर आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजी के चरणों में निवेदित की। गुरुदेव ने कुमारपाल का ध्यान बनी हुई घटना की ओर आकृष्ट किया।
कुमारपाल ने शीघ्र ही एक राजपुरूष को सोमनाथ पाटन भेजकर, बृहस्पति को सेवा से निवृत्त करके अन्य पुजारी को नियुक्त कर दिया।
बृहस्पति बेचारा रास्ते पर आ गया। उसे मन ही मन अपनी गलती का अहसास होने लगा। उसने पाटन से आये हुए उसी राजपुरुष से पूछा :
'अब मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? मेरी गलती तो बड़ी भारी है?'
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