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सच्ची सुवर्णसिद्धि
१३९
'गुरुदेव, इस परमार्हत् राजा कुमारपाल ने अपने देश में से हिंसा को खदेड़ दिया है। हजारों जिनमंदिर बनाकर अपूर्व पुण्योपार्जन किया है। अब यदि इसे 'सुवर्णसिद्धि' प्राप्त हो जाए तो दुनिया में एक भी व्यक्ति को यह दुःखी नहीं रहने देगा ।
गुरुदेव, आपके पास 'सुवर्णसिद्धि' है। मैं जब छोटा था, सोमचन्द्र मुनि था, तब आपने मेरे आग्रह से लोहे के टुकड़े को सोने का टुकड़ा कर के बताया था। आप कुमारपाल पर अनुग्रह कर के उसे वह 'सुवर्णसिद्धि' प्रदान करें... ऐसी मेरी विनती है ।'
गुरुदेव देवचन्द्रसूरिजी ने राजा के सामने देखा और कहा :
'राजन्, तेरे पास दो-दो सुवर्णसिद्धियाँ तो हैं ... फिर तीसरी सुवर्णसिद्धि की तुझे आवश्यकता ही नहीं है । '
'प्रभु, मेरे पास तो एक भी सुवर्णसिद्धि नहीं है । '
दोनों हाथ जोड़कर... आश्चर्ययुक्त राजा बोल उठा ।
‘वत्स, है तेरे पास दो सुवर्णसिद्धियाँ।'
'हिंसा का निवारण और जिनमंदिरों का सर्जन ।' ये दो श्रेष्ठ सुवर्णसिद्धियाँ तुझे प्राप्त हुई है।'
कुमारपाल का दिल गद्गद् हो उठा गुरुदेव के मुँह से ऐसे आशीर्वचन सुन कर। उन्होंने गुरुदेव के चरणों में मस्तक रखकर वंदना की । हेमचन्द्रसूरिजी ने गुरुदेव से कहा :
'गुरुदेव, आपके पास जो 'सुवर्णसिद्धि' है... मैं उसके बारे में बात कर रहा
था।’
'हेमचन्द्र, वह सुवर्णसिद्धि कुमारपाल के भाग्य में नहीं है... न तेरे भाग्य है । इसलिए मैं तुझे या राजा को सुवर्णसिद्धि नहीं दूँगा । भाग्य के बगैर उत्तम वस्तु मनुष्य के पास टिक नहीं सकती । '
गुरुदेव खड़े हुए।
हेमचन्द्रसूरि और कुमारपाल भी खड़े हो गये।
‘हेमचन्द्र अब से ऐसे बिना महत्व के कार्यो के लिए मुझे यहाँ मत बुलाना । मेरी आत्मसाधना में खलल पड़ती है।'
गुरुदेव देवचन्द्रसूरिजी खंभात की ओर विहार कर गये ।
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