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चंगदेव
चाचग भी पाहिनी की हर एक इच्छा को पूरी करता है। यों करते हुए नौ महीने बीत गये। विक्रम संवत ११४५ का वह वर्ष था। कार्तिक पूर्णिमा का धन्य दिवस था। पाहिनी ने पुत्र को जन्म दिया।
पूनम के चाँद से सौम्य और रुई के ढेर से गोरे-गोरे नवजात शिशु को देखकर पाहिनी पागल सी हो उठी।
उसी वक्त आकाश में देववाणी हुई : 'पाहिनी और चाचग का यह नवजात शिशु, तत्त्व का ज्ञाता होगा और तीर्थंकर की भाँति जिनधर्म का प्रसारक होगा।'
आकाशवाणी यानी देव की वाणी।
देव की वाणी सच होती ही है। देववाणी सुनकर चाचग, पाहिनी और अन्य लोग प्रसन्न हो उठे।
चाचग ने पुत्र जन्म की खुशी में महोत्सव मनाया । बारहवें दिन बच्चे की फूफी ने नाम रखा : 'चंगदेव!'
चंगदेव मनमोहक रूपवान था। वह सभी के मन को मोह लेता था! वह हँसता...खिलखिलाता हो, तब लगता जैसे जूही के फूल झर रहे हों! ।
पाहिनी रोजाना चंगदेव को स्नान करवा के स्वच्छ रखती। उसे सुन्दर कपड़े पहनाती... उसे किसी की बुरी नजर न लग जाए इसलिए गाल पर काजल का छोटा सा बिन्दु रचाती! चाचग सेठ चंगदेव के लिए नये-नये खेलखिलौने लाते थे!
पाहिनी ने सर्वप्रथम चंगदेव को 'अरिहंत' का 'अ' बोलना सिखाया... इसके बाद 'नमो अरिहंताणं' का 'न' बोलना सिखाया । 'मा' बोलना तो वह खुद ही सीख गया था!
पाहिनी चंगदेव को लेकर मंदिर में जाती है...। _ 'बेटा, ये भगवान हैं, दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करो... सिर झुकाओ। पाहिनी चंगदेव को भगवान की पहचान करवाती है, वंदना करना सिखाती
पाहिनी चंगदेव को साधु मुनिराज के पास ले जाती है...।
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