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चंगदेव
"बेटा, ये अपने गुरु महाराज हैं, गुरूदेव हैं...। इन्हें दोनों हाथ जोड़ो... सिर झुकाकर वंदना करो...।' चंगदेव गुरुदेव को वंदना करता है...। गुरुदेव के सामने देखकर मुस्कुराता है..हँसता है...। गुरूदेव भी मीठे स्वर में 'धर्मलाभ' का आशीर्वाद देकर उसके सिर पर वात्सल्यभरा हाथ रखते हैं!
चंगदेव बड़ा होता जाता है...। उसे पढ़ने के लिए पाठशाला में भेजा जाता है। वह एकबार जो भी सुनता है...उसे याद हो जाता है। वह शिक्षक के एक-एक प्रश्न का सही जवाब देता है...। शिक्षक की विनय करता है...। शिक्षक का लाड़ला हो जाता है। शिक्षक चंगदेव की बुद्धि और उसके गुणों की प्रशंसा करते हैं...। एक दिन की बात है :
पाँच साल का चंगदेव माता पाहिनी के साथ जिनमंदिर गया हुआ था। जिनमंदिर में देववंदन करने के लिए आचार्यदेव श्रीदेवचन्द्रसूरिजी भी पधारे हुए थे।
आचार्यदेव के शिष्य ने आचार्यदेव को बैठने के लिए आसन बिछाया था। आचार्यदेव परमात्मा को प्रदक्षिणा दे रहे थे। पाहिनी एक ओर खड़ी-खड़ी परमात्मा की स्तवना कर रही थी। उसी समय चंगदेव ने एक शरारत की...|
वह जाकर सीधे ही आचार्यदेव के आसन पर जम गया! उस पर एक साथ पाहिनी और आचार्यदेव की दृष्टि पड़ी। पाहिनीदेवी आगे बढ़े इससे पहले तो आचार्यदेव हँस पड़े! चंगदेव भी खिलखिलाने लगा। आचार्यदेव ने पाहिनी से कहा : __ 'श्राविका, तुझे याद आ रहा है तेरा स्वप्न? तुझे चिंतामणि रत्न मिला था... वह रत्न तूने मुझे दे दिया था!' । 'हाँ गुरूदेव, स्मृतिपथ में आ गया वह स्वप्न!'
'उसी स्वप्न का यह सूचक है। तेरा लाड़ला खुद ही मेरे आसन पर बैठ गया है! भविष्य में वह मेरी पाट पर बैठनेवाला है ना? पाहिनी! यह तेरा पुत्र जिनशासन का महान् प्रभावक आचार्य होने वाला है...। तू मुझे सौंप दे इस पुत्र को!'
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