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डायनों को मात दी
११० सभी देवियाँ आचार्यदेव के पैरों में गिरी । सैंधवी देवी आचार्यदेव के कदमों में झुक गई। सभी ने गुरुदेव से जैन धर्म को स्वीकार किया।
सभी देवियाँ अपने-अपने स्थान पर चली गई। इधर तुरन्त ही आम्रभट्ट होश में आये | उनकी सारी पीड़ा शान्त हो गई थी।
यशश्चन्द्र ने रणमल से कहा : 'रणमल, अब ये सारे फल और मिठाई वगैरह सैंधवा देवी को अर्पण कर दो। फिर हम उपाश्रय को चलते हैं।'
रणमल ने देवी के समक्ष चढ़ावे का थाल रख दिया। ___ आचार्यदेव, यशश्चन्द्र मुनि, रणमल-तीनों सही सलामत उपाश्रय में लौट आये।
रणमल ने यशश्चन्द्र से कहा :
'गुरुदेव, आप मुझे अपना शिष्य बना लीजिए, और ऐसी मंत्रविद्याएँ मुझे सिखाइये... ताकि मैं भी ऐसे परोपकार के कार्य कर सकूँ।' ___ गुरुदेव ने स्मित बिखेरते हुए उसे आशीर्वाद दिये और वह अपने घर पर गया।
आम्रभट्ट अपनी माता और पत्नी के साथ, सबेरे ही आचार्यदेव के चरणों में वंदना करने के लिए आये, वंदना की। आम्रभट्ट तो गुरुदेव की गोद में सिर रखकर रो पड़े | फफक-फफक कर रोने लगे। गुरुदेव ने आम्रभट्ट के सिर पर अपना हाथ सहलाते हुए कहा : 'अंबड़, शान्त हो... ऐसा तो चलता रहता है, जिन्दगी है,... उतार-चढ़ाव आते-जाते हैं, दैवी उपद्रव शान्त हो गया है।' ___ 'गुरुदेव, मेरे लिए आपको पाटन से इधर तक आने का कष्ट उठाना पड़ा। मेरे लिए आपने कितनी तकलीफ ली। मुझे दुःख इस बात का है।' ___ 'अंबड़, मैं तेरे लिए नहीं आया। तू उदयन महामंत्री का पुत्र है... इसलिए भी नहीं आया हूँ... मैं आया हूँ जिनशासन के एक सुभट की सुरक्षा के लिए | तू मेरे जिनशासन का अजोड़ सैनिक है। दुनिया में जिनशासन का विजयध्वज फहरानेवाला है। अनेक जीवों को अभयदान देनेवाला है। इसलिए मैं आकाशमार्ग से यहाँ पर आया हूँ। अब यहाँ से पदयात्रा विहार करते हुए ही पाटण लौटूंगा।'
आम्रभट्ट की वयोवृद्धा माता पद्मावती ने कहा :
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