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जिंदगी इम्तिहान लेती है
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मुझे यह तत्त्वज्ञान इतना अच्छा और वास्तविक लगा है कि मैं तुझे किन शब्दों में लिखूँ ? इसकी प्रशंसा के शब्द मेरे पास नहीं हैं। मुझे बता, यह संसार एक नाटक नहीं है तो क्या है? एक अभिनेता अपने जीवन में जितने अभिनय करता है, उससे अनेक ज़्यादा अभिनय जीवात्मा करता है। फर्क इतना है कि जीवात्मा को ज्ञान नहीं है कि वह अभिनय कर रहा है । अभिनेता को ज्ञान होता है कि वह अभिनय कर रहा है। जीवात्मा जो कुछ करता है वास्तविक मान, कर करता है ।
संसार में क्या वास्तविक है ? आत्मा के अलावा सब मिथ्या है, असत् है, काल्पनिक है। ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या !' वेदान्त का यह सूत्र इस संदर्भ में कितना सत्य और परिपूर्ण है । जगत् को मिथ्या समझो, असत् समझो। एक अभिनेता सम्राट अशोक बनकर नाटक के रंगमंच पर आता है, दर्शकों की दृष्टि में वह सम्राट अशोक होता है, परन्तु वह स्वयं अपने आपको समझता है कि वह कौन है | वह अपने आपको 'सम्राट अशोक' सत्यरूप में नहीं मानता है, इसलिए परदे के भीतर जब वह जाता है, तो बिना हिचकिचाहट के सम्राट की वेशभूषा उतार देता है । यदि उसको बाद में भिखारी का अभिनय करना होता है, तो वह भिखारी बनकर रंगमंच पर जाएगा। उसके दिल में कोई रंज नहीं होगा ।
हम तो सच्चिदानंद स्वरूप आत्मा हैं । हम मानवरूप में अभिनय कर रहे हैं, दूसरे जीव, कोई पशुरूप में, कोई नारकरूप में, कोई देवरूप में अभिनय कर रहे हैं। अपने में से कोई पिता का, कोई माता का, कोई पुत्र का, कोई पति का, कोई पत्नी का ... अभिनय कर रहा है। कोई धनवान का, कोई गरीब का, कोई बलवान का, कोई निर्बल का... अभिनय कर रहा है। सच कुछ भी नहीं है, सच है मात्र आत्मा !
यदि यह दृष्टि खुल जाये तो ही हृदय निर्लेप और निःसंग रह सकेगा । हृदय से निर्लेप और निःसंग रहने के लिए यह चिन्तन सतत करना होगा । बन गया हृदय निर्लेप, बस, फिर दुनिया में कुछ भी हो जाए ! कैसा भी खूनखराबा पिक्चर में आए, हम को क्या होता है ? कुछ नहीं । वैसे दुनिया में कुछ भी हो जाये, अपने शरीर को कोई जला भी दे, अपना सारा परिवार नष्ट हो जाये, सारी सम्पत्ति चली जाये, कुछ भी हो जाये, निर्लेप और निःसंग हृदय दुःखी नहीं होगा ।
अशुद्ध हृदय, जड़संगी और विषवासना से लिप्त हृदय ही दुःखी और
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