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जिंदगी इम्तिहान लेती है
५८ हो, हृदय से संपर्क नहीं होना चाहिए। प्रिय विषयों की इच्छाओं से हृदय भर गया तो अशांति, क्लेश और संताप से भर जाओगे! ___ कहीं भी हृदय से बंधना नहीं! निर्बंधन रहो । बाह्यदृष्टि से भले बंधन दिखे दुनिया को, हम को निर्बंधन रहने का! अशक्य नहीं है यह बात । आन्तरिक पुरुषार्थ से संभवित है, शक्य है। मिथिला के राजा जनक का एक प्रसंग याद आता है। जनक 'विदेह' कहलाते थे। देहधारी थे, फिर भी 'विदेह' कहलाते थे। इसका अर्थ समझा तू? दुनिया उनको देहधारी देखती थी, जनक स्वयं 'यह देह मैं नहीं हूँ, देह से भिन्न सच्चिदानंद स्वरूप आत्मा हूँ मैं।' ऐसा मानते थे, समझते थे। उनको आत्मानुभूति हुई थी। इसको 'भेदज्ञान' कहते हैं। जनक राजा थे, राज्य को संभालते थे, प्रजा का पालन करते थे, अपने सभी कर्तव्यों का भी पालन करते थे। परन्तु उनका हृदय था निर्लेप और निःसंग।
एक बार मिथिला में एक विद्वान संतपुरुष आए। संत अच्छे प्रभावशाली प्रवक्ता थे। हजारों नगरजन उनका प्रवचन सुनने जाते थे। संतपुरुष की एक विशेषता यह थी कि वे प्रवचन देना तब शुरू करते थे, जब महाराजा जनक पधारते थे! यदि जनक देरी से आते तो प्रवचन देरी से शुरू होता, यदि समय पर आते तो प्रवचन समय पर शुरू हो जाता। दूसरे श्रोताओं को यह पद्धति अखरती थी। आपस में लोग संतपुरुष की इस आदत की आलोचना भी करते थे। संत को श्रोताओं की मनःस्थिति का ज्ञान था ।
एक दिन की बात है। संत का प्रभावशाली प्रवचन हो रहा था, महाराजा जनक और नगरवासी हजारों लोग ज्ञानगंगा में निमग्न थे। अचानक दो आदमी दौड़ते हुए प्रवचन मंडप में घुस गए और जोर से चिल्लाए : 'दौड़ो...दौड़ो... नगर में भयंकर आग लगी है! महाराजा के अंतःपुर में भी आग लगी है...!'
सभी लोग घबराए और उठ-उठकर भागने लगे। सारा प्रवचन मंडप खाली हो गया...मात्र महाराजा जनक बैठे रहे, वे नहीं गए। संत का प्रवचन चलता रहा। लोग सब अपने-अपने मुहल्ले में पहुंचे। देखा तो आग का नामोनिशान नहीं था! लोगों ने सोचा कि 'उन दो पुरुषों ने अपना उपहास किया...।' धीरे-धीरे लोग प्रवचन मंडप में आने लगे। जब प्रवचन पूर्ण हुआ, संत ने जनक को पूछा :
'आग लगने के समाचार सुनकर ये सब लोग चले गए, आप क्यों नहीं गए? आप के अन्तःपुर में भी आग लगने के समाचार दिए थे उन पुरुषों ने।'
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