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जिंदगी इम्तिहान लेती है @ जीवन जीने के लिए सोच-समझकर आयोजन करना चाहिए। स्वयं यदि न
बना सके तो किसी श्रद्धेय व्यक्ति को अपना मार्गदर्शक चुन लेना चाहिए। ® जीवन संसारी का हो या साधु का, यदि आनंद व प्रसन्नता की मस्ती में
झूमते हुए जीना है, तो हृदय को अनासक्त, अलिप्त एवं विरक्त बनाना ही होगा। ® जिन्दगी क्या है? अभिनय मात्र! जीना ऐसे है जैसे अभिनय कर रहे हैं...
और अभिनय भी जानदार करना है... अभिनय करने वाले घटनाओं की
गलियों में घूमते जरूर है... भटक नहीं जाते! ® दुनिया में 'आत्मा' के अलावा वास्तविक है क्या? कुछ भी नहीं! 'ब्रह्म सत्यं
जगन्मिथ्या' यहाँ पर सत्य लगता है!
पत्र : १३
प्रिय मुमुक्षु।
धर्मलाभ, दो महीने धार्मिक महोत्सव में व्यतीत हो गए। पत्र लिखने का विचार तो कई बार आया परन्तु नहीं लिख सका। दो महीनों में मनोमंथन तो खूब हुआ, कई दिव्य विचार भी आए.. अभिव्यक्ति तो समय मिलने पर ही हो सकती है। ___ मनुष्य को सर्वप्रथम यह निर्णय करना चाहिए कि उसको कैसा जीवन जीना है। यदि स्वयं निर्णय करने की बुद्धि-शक्ति हो तो स्वयं निर्णय करें, यदि वैसी बुद्धि-शक्ति नहीं है, तो अपने श्रद्धेय व्यक्ति के निर्णय को मान्य कर लेना चाहिए | या तो स्वयं गाड़ी चलाना सीखो अथवा ड्राइवर को गाड़ी सौंप दो। द्विधा में नहीं रहना चाहिए। __ जीवन का मार्ग स्पष्ट होने पर मैं तुझे स्पष्ट मार्गदर्शन दे सकता हूँ। फिर भी एक बात कह दूं कि जीवन संसारी का हों या साधु का, यदि प्रसन्नतापूर्वक आनंदपूर्ण जीवन व्यतीत करना हो तो हृदय को निर्मम निःसंग बनाना होगा। परद्रव्य का संग और ममत्व ही तो भयंकर अशुद्धि है! ___ बाह्य जीवन में पर द्रव्यों का संग रहेगा ही। ममत्व भी दिखाना पड़ेगा। पाँच इन्द्रियों के अनेक विषयों का संपर्क होता रहता है, इन्द्रियों से भले संपर्क
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