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जिंदगी इम्तिहान लेती है। ® विशुद्ध हृदय की गहराइयों में ही सच्चे प्रेम का उद्भव हो सकता है। ॐ व्यावहारिक और हार्दिक प्रेम में गहरा अंतर है! दुनिया में अधिकांश लोग
व्यावहारिक प्रेम को ही प्रेम मान लेते हैं। ® प्रेम में यदि शिकायत या फरियाद का दौर आता है, तो समझ लेना चाहिए
कि प्रेम का सही रूप खो गया है! ® हृदय को विशुद्ध बनाने के लिए मैत्री, प्रमोद, करुणा व माध्यस्थ्य भावनाओं
को अपनाना ही होगा। @ मैत्री के लिए शत्रुता नहीं होना, इतना ही पर्याप्त नहीं है... वरन् सभी जीवों
के साथ भीतरी स्नेह का नाता भी जुड़ा होना जरूरी है! वह स्नेह भी नि:स्वार्थ और अकारण होना चाहिए।
पत्र : १२
प्रिय गुमुक्षु!
धर्मलाभ, मेरी कल्पना के अनुसार ही तेरा पत्र आया। निराशा से भरपूर और शिकायतों से भरपूर! शिकायतों से तो मुझे आनंद हुआ, परंतु निराशा से कुछ ग्लानि हुई। ऐसा प्रेम कि जिसका मैं वर्णन कर रहा हूँ, नारद के भक्ति सूत्र कर रहे हैं, वैसा प्रेम करना तुझे संभव नहीं लगता, इसलिए तू निराश हो गया। ऐसा प्रेम तुझे कहीं से भी नहीं मिल रहा है - इसकी शिकायतें तूने की... अच्छा है, इस बहाने भी दिल तो खुल गया तेरा! ____ मैं जिस प्रेम की बात लिख रहा हूँ, उस प्रेम का उद्भव स्थान है, विशुद्ध हृदय । ज्यों-ज्यों हृदय शुद्ध बनता जाएगा, त्यों-त्यों प्रेम भी विशुद्ध बनता जाएगा। अशुद्ध हृदय से शुद्ध प्रेम प्रगट नहीं हो सकता | अशुद्ध हृदय बाह्य रूप, गुण आदि की ओर आकृष्ट होता है। शुद्ध हृदय सहजभाव से दूसरी आत्माओं के प्रति प्रवृत्त होता है। ___ संसार में प्रेम की आवश्यकता क्यों है? मनुष्य यदि प्रेम की आवश्यकता समझता है तो इसलिए कि उसको दोष और दुःखों से बचना है। प्रेम में वह शक्ति है, इसलिए जीवात्मा प्रेम चाहता है। स्वयं को दोष और दुःखों से बचाने
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