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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिंदगी इम्तिहान लेती है ५१ सकता । अज्ञानी प्रेम कर ही नहीं सकता। वह राग कर सकता है, मोहित हो सकता है, प्रेम नहीं कर सकता। भले हजारों शास्त्रों का ज्ञान हो परन्तु आत्मस्वरूप का ज्ञान न हो, आत्मानुभूति न हो, वह अज्ञानी ही कहलाएगा। आत्मज्ञानरहित, अध्यात्मरहित शास्त्रज्ञानी प्रेमतत्त्व को समझ ही नहीं सकता। प्रेम की गहरी अनुभूति कर ही नहीं सकता। तू ऐसा प्रेमतत्त्व पाना चाहता है? तो तुझे आत्मज्ञानी बनना होगा। तुझे ऐसा प्रेम दूसरों से चाहिए? तो आत्मज्ञानी महापुरुषों से मिलेगा। ऐसे आत्मज्ञानी महापुरुष विरल हैं इस संसार में। परन्तु हैं जरूर! आत्मद्रष्टा निष्काम योगी पुरुष किस रूप में, किस वेश में मिले, यह मैं नहीं बता सकता...! मैं तो यह कहता हूँ कि तू ऐसा बन जा! आत्मद्रष्टा बन जा। निष्काम योगी बन जा! तेरे लिए कठिन नहीं है। कठिन मानना भी नहीं। कड़ा संकल्प कर और कर्तव्यमार्ग पर चलता रहे । तू प्रेममय बन जाएगा। अनन्त सुख, अनन्त आनंद पा लेगा। जीवों के गुण-दोषों का दर्शन करते रहेंगे... उसमें ही उलझे रहेंगे तो प्रेमतत्त्व की अनुभूति कभी नहीं होगी। राग-द्वेष के विषचक्र में कुचलते रहेंगे। गुणदोषों का दर्शन राग-द्वेष पैदा करता है। परद्रव्य के गुण-दोष देखो ही मत | परद्रव्य को देखना ही क्यों? देखना यानी विचार करना! परद्रव्यों का विचार ही क्यों करना? तू कहेगा : 'संसार में रहते हैं तो विचार तो आ ही जाते हैं! परद्रव्यों के आधार पर तो जीवन जी रहे हैं!' ऐसा क्यों होता है, जानता है? जन्म-जन्मान्तर से ऐसे ही करते आए हैं, ऐसा ही अभ्यास हो गया है, इसलिए | दूसरा अभ्यास शुरू करना होगा। मैं परद्रव्यों का विचार किए बिना भी जीवन जी सकता हूँ, ऐसा मानसिक संकल्प करना होगा। परद्रव्यों का उपयोग करना अलग बात है, उनके गुण-दोषों का विचार करना अलग बात है। जिस वस्तु का उपयोग करना पड़े उसका विचार करना ही पड़े, उसके गुणदोषों का चिन्तन करना ही पड़े, ऐसा नियम नहीं है। 'मुझे अखंड... अविच्छिन्न और सूक्ष्मतर प्रेम की अनुभूति करनी है', ऐसा दृढ़ संकल्प करने पर मार्ग स्पष्ट और सरल बन जाएगा। मात्र विचार या इच्छा से कार्य सिद्ध नहीं होता है। संकल्प के चरणों में सिद्धि नमन करती है। For Private And Personal Use Only
SR No.009633
Book TitleJindgi Imtihan Leti Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size3 MB
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