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जिंदगी इम्तिहान लेती है पत्र में क्या लिखा है - यह तो बाद में जब पढ़ा पत्र, तब ज्ञात हुआ, परन्तु पत्र देखते ही पत्र लिखने वाला, कल्पना में साकार हो आया। अब तू मेरे सामने ही है... तेरी निर्दोष और स्नेहपूर्ण मुखमुद्रा देखता हूँ, प्रसन्नता अनुभव करता हूँ|
आज जब तू कल्पना के आलोक में मेरे सामने आकर बैठ गया है, तो आज मैं अपनी संवेदना ही व्यक्त करूँगा, आज मैं अपना ही हृदय खोलूँगा तेरे सामने । देख, बादलों का और बिजलियों का तूफान शांत हो चला है। वृष्टि का वेग भी कुछ कम हुआ है। स्वाभाविक रूप से ही मेरे मन में आज अन्तर्तम संवेदन फूट रहा है।
'कई वर्षों से मैं प्रेम के विषय में सोचा करता था। आज भी सोचता हूँ| परन्तु पहले, वर्षों तक, अनिश्चित और संदिग्ध विचारों में उलझा रहा। अनेक तर्कों से और अनेक मनोवैज्ञानिक विश्लेषणों से 'प्रेम' का स्वरूप समझने की चेष्टा की। प्रेम का स्वरूप अज्ञात ही रहा। शास्त्रों का... धर्मग्रन्थों का ज्ञाता बनता चला, प्रेम स्वरूप का अ-ज्ञाता ही बना रहा।
तू जानता है न कि मैं एक श्रमण हूँ, जैन मुनि हूँ? वैराग्य तो मुनि-जीवन में अनिवार्य रूप से होना चाहिए। बात भी सही है - संसार के प्रति वैराग्य जागृत हो जाने से तो मैं मुनि बना। परन्तु क्या मुनिजीवन मात्र वैराग्य से ही मैंने ग्रहण किया था? अपने मेरे उस अतीत को टटोला। उस समय के मेरे मनोभावों को टटोला । अवश्य, संसार के प्रति विरक्ति का भाव था मन में। साथ ही; संयम के प्रति, संयमी महात्माओं के प्रति राग भी पैदा हुआ था मेरे मन में | उस राग को उपादेय माना गया है। कर्तव्यरूप माना गया है। उसको 'प्रशस्तराग' कहा गया है। संयमराग, संयमप्रेम, संयमस्नेह को उत्तम गुण माना गया है | संयम का अर्थ है चारित्र, साधुता, मोक्षमार्ग वगैरह।
वैसे, परमात्मा के प्रति भी प्रेम करना आवश्यक माना गया है। परमात्मप्रीति, परमात्मभक्ति महान धर्म कहा गया है। परमात्मा के सामने प्रेमपूर्ण मिलन के व विरह के गीत भी गाये गए हैं, योगीपुरुषों ने भी गाये हैं। अर्थात् परमात्मा से प्रेम करने का मार्ग अवरुद्ध नहीं है।
प्रत्येक धर्मक्रिया, धर्मानुष्ठान प्रेमपूर्वक करने का उपदेश दिया गया है, धर्मग्रन्थों में। धर्मग्रन्थों में मैंने ये सारी बातें पढ़ी हैं। इतना ही नहीं, सर्व जीवों के साथ भी मित्रता का प्रेम स्थापित करने को कहा गया है। जीवमात्र के साथ
प्रेम!
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