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जिंदगी इम्तिहान लेती है
२१७ ® अच्छी बातों पर चिंतन-मनन करते-करते अपने विचार भी तद्रूप बन जाने
चाहिए। ® सुख प्राप्त करने की वृत्ति ही तमाम संघर्षों की जड़ है। इस बात को दिल व
दिमाग की दीवार पर नक्श कर देना चाहिए। @ मिले हुए सुखों का अनुभव कर लेना एक बात है और ज्यादा से ज्यादा
सुख पाने की कल्पना के नशे में बेहोश रहना और बात है। ® सुख-दु:ख के बारे में मन को निराग्रही व निराकुल बनाना होगा। निराशंस
बनाये रखना होगा। ® जब सहन करना ही है... तब फिर प्रसन्नता से, हँसते मुँह और खेलतेखिलते-खुलते हुए क्यों नहीं जीना!
पत्र : ५२८
प्रिय मुमुक्षु,
धर्मलाभ, बहुत दिनों से तेरा पत्र नहीं है। तेरे तन-मन की कुशलता चाहता हूँ। चातुर्मास-काल प्रसन्नता से व्यतीत हो रहा है। लेखन-प्रवचन-अध्यापन आदि नित्यक्रम सुचारु रूप से चल रहा है। ___ मुमुक्षु, संभवतः तेरे लिये मेरा यह पत्र अंतिम होगा। जिस विषय पर पाँच वर्ष से तुझे लिख रहा हूँ, पर्याप्त लिखा है, ऐसा लगता है। अब कुछ वर्ष तू इन पत्रों पर चिन्तन-मनन करता रहेगा तो मुझे प्रसन्नता होगी। चिन्तन-मनन करते-करते तेरे मन के विचार ही चिन्तन के अनुरूप बन जायें, तो जीवन जीने का अपूर्व आनन्द तू पा सकेगा।
कुछ दिनों से मनोवृत्तियों के विश्लेषण में दिलचस्पी बढ़ गई है। इस विश्लेषण में मैंने पाया कि सुख पाने की, सुखानुभव करने की मनोवृत्ति ही सभी पापों का मूल है। सभी बुराइयों की जड़ है। वैषयिक सुखों का रसास्वाद करने की इच्छाएँ पैदा होती हैं और अशान्ति का प्रारम्भ होता है। कोई दोचार सुख पा लेने से इच्छाएँ समाप्त नहीं होती। नयी-नयी सुखेच्छाएँ पैदा होती रहती हैं।
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