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जिंदगी इम्तिहान लेती है
१९५ 'उसकी हर अपेक्षा पूर्ण होती है, माता उसकी अपेक्षा को पूर्ण करती है, भाई-बहन भी उसकी अपेक्षा को समझते हैं और वैसा व्यवहार करते हैं, मेरे घर में कोई भी व्यक्ति मेरी अपेक्षाओं को समझता ही नहीं... फिर अपेक्षा पूर्ण करने की तो बात ही कहाँ?'
आते हैं न ऐसे विचार तेरे मन में? ऐसे हीन विचारों से मन भर गया है न? अब क्या करना है? घर से भाग जाना है? कहाँ जाना है? तू जहाँ जाने को सोचता है, वहाँ तेरी उपेक्षा नहीं होगी ना? है न पूरा विश्वास? वहाँ तेरी हर अपेक्षा का सम्मान होगा न? है न पूर्ण श्रद्धा? खूब सोच विचार करके कदम उठाना । यदि भ्रम को सत्य मानकर चलेगा तो नयी आफत में फँस जायेगा। मुझे तो ऐसा लगता है कि तेरी अपेक्षायें कहीं पर भी पूर्ण नहीं होगी!
एक सत्य को स्वीकार करना होगा-वही मनुष्य उपेक्षित होता है कि जो दूसरों की उपेक्षा करता है! जो मनुष्य दूसरों की अपेक्षाओं का विचार नहीं करता है, वह दूसरों से अपनी अपेक्षाओं को पूर्ण होने की आशा नहीं रख सकता।
जो मनुष्य दूसरों की उपेक्षा नहीं करता है, फिर भी उपेक्षित होता है तो समझना चाहिए कि उसके पापकर्मों का उदय है! दूसरों की उपेक्षा नहीं करनेवाला और दूसरों के प्रति अपने कर्तव्यों का खयाल करनेवाला मनुष्य यह सोचता ही नहीं कि 'मैं उपेक्षित हो रहा हूँ!'
जो मनुष्य दिन-रात अपने कर्तव्यों में ही प्रवृत्त रहता है वह कभी सोचता ही नहीं है कि मेरी उपेक्षा हो रही है या मेरी महत्ता बढ़ रही है। दीर्घकाल तक कर्तव्यपालन करते रहने से स्वतः महत्ता बढ़ जाती है! फिर भी उस महानुभाव को महत्ता की कोई अपेक्षा नहीं होती है। 'दूसरे लोग मेरी सेवाओं की प्रशंसा करें,' ऐसी मनोकामना ही नहीं!
इतना ही नहीं, जब समय मिले तब दूसरों के सत्कार्यों की प्रशंसा करता रहता है। जिसकी वह प्रशंसा करता है, संभव है कि वह व्यक्ति इसकी निन्दा करता हो! 'वह मेरी निन्दा करता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं उसकी प्रशंसा न करूँ! संभव है कि मेरी निन्दा करने का इरादा दूसरा ही हो! वह मुझे आत्मनिरीक्षण का अवसर देना चाहता हो और यह इरादा तो अच्छा है।'
प्रिय मुमुक्षु! तू दुःखी न हो, मत सोच कि 'मेरी उपेक्षा हो रही है।' तू सावधान रहना कि तुम से किसी की उपेक्षा न हो जाय | कभी भी प्रतिशोध की
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