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जिंदगी इम्तिहान लेती है
१८२ ® शाँति पाने की तीव्र चाह हो, प्रसन्नता पाने की अदम्य उत्कंठा हो, पवित्रता पाने की असीम अभीप्सा हो,
तभी मनुष्य वातावरण का फायदा उठा सकता है। ® जीवन को देखने-परखने की दृष्टि के अभाव में आज व्यक्ति बाहर से तो
भटक गया है... भीतर से भी वह भटक गया है! ® औरों की गलतियाँ ही देखने की आदत आदमी को जीवन की गहराइयों में
उतरने नहीं देती है! ® मन के विचारों को मोड़ देना, भीतर में उठते भावों को योग्य दिशा देना
अति आवश्यक है। ® समतालीन मन ही तमाम सुख का स्रोत है।
पत्र : ४३
प्रिय मुमुक्षु!
धर्मलाभ, तेरा पत्र कुछ दिन पूर्व मिला था।
हम कच्छ के भव्य तीर्थ भद्रेश्वर में कुछ समय रूकेंगे। यहाँ ऐसा वातावरण है कि मनुष्य सरलता से शान्ति पा सकता है। प्रसन्नता से अपने प्राणों को पुलकित बना सकता है। अपनी अन्तरात्मा को पवित्रता से भर सकता है...!
यह कार्य तभी हो सकता है, जब मनुष्य के पास जीवन जीने की दृष्टि हो। शान्ति पाने की तीव्र चाह हो। प्रसन्नता की अनुभूति करने की प्रबल भावना हो... पवित्रता का तीव्र आकर्षण हो। यदि यह नहीं होता है, तो सुयोग्य वातावरण मिलने पर भी मनुष्य वैसा अशान्त, उद्विग्न और मलिन बना रहता
जीवन-दृष्टि के अभाव में मनुष्य भटकता रहता है, भीतर का भटकाव और बाहर का भी भटकाव! तेरे इस पत्र से मैं यह समझता हूँ कि तूने अभी भी आन्तरस्थिरता नहीं पायी है। तेरा मन उद्विग्न है... और तू आर्तध्यान में फँस गया है।
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