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जिंदगी इम्तिहान लेती है
१७३ संताप अनुभव करते हुए जीवन व्यतीत कर रहे हैं! साधु बन जाने के बाद भी यदि उनके पास यह तात्त्विक जीवनदृष्टि नहीं है, वे साधु भी आर्तध्यान में अपने आन्तर व्यक्तित्व को कलुषित करते हैं, मानसिक अशान्ति भोगते हैं। तपस्वी हो या विद्वान हो... दिव्यदृष्टि के अभाव में क्लेश और संताप ही अनुभव करने पड़ेंगे। ___ मैं तुझे ज्यादा तो क्या लिखू? परंतु मेरी यह राय है कि संसार के व्यवहार की तुच्छ बातों में उलझना नहीं। दुनिया के किसी प्रश्न को, किसी समस्या को अपने हृदय पर 'हावी' मत होने देना। इतनी तेरी सावधानी रहेगी तो तेरी आत्मसाधना प्रगतिशील बनी रहेगी। तू आंतरप्रसन्नता का मधुर अनुभव करेगा। इसके अलावा और क्या चाहिए?
जिस प्रकार सर्वज्ञ भगवंतों ने संसार का स्वरूप बताया है, उसी प्रकार संसार को जान लेना चाहिए... फिर, संसार की किसी भी अच्छी या बुरी घटना को लेकर आनन्द-उद्वेग नहीं होगा । अंतरात्मा में दिव्य ज्ञान का दीपक जलता रहे, मोक्षमार्ग को प्रकाशित करता रहे, इसलिए जागृत बने रहना। अनेक आन्तरद्वन्द्व और बाह्यद्वन्द्वों के बीच जीवन जीना है और ज्ञान-दीपक को प्रज्वलित रखना है। क्या करेगा तू? 'ज्ञानसार' और 'प्रशमरति' का स्वाध्याय चलता होगा? चिंतनमनन करता होगा? कषायजन्य उद्वेग शान्त हो जाता है न? विषयों का आकर्षण कम होता जा रहा है न? वैषयिक सुखों की प्रबल इच्छायें प्रशान्त करने की हैं।
वातावरण दिन-प्रतिदिन ज्यादा विलासी बनता जा रहा है। पाँच इन्द्रियों को उत्तेजित करने के निमित्त बढ़ते ही जा रहे हैं। धन-संपत्ति और वैभव का व्यामोह, मनुष्य के मन पर 'हावी' हो गया है। विकथायें व्यापक बन गयी हैं। तत्त्वचर्चा और आत्मचिंतन भुलाया जा रहा है। धर्मक्रियाओं के प्रति मनुष्य नीरस बनता जा रहा है। ऐसी विषम परिस्थिति में ज्ञानदृष्टि को सलामत रखना अशक्य तो नहीं, मुश्किल जरूर है।
वैषयिक सुख-साधनों के प्रबल आकर्षण ने मनुष्य को पथभ्रष्ट कर दिया है। दिशाशून्य बना हुआ मनुष्य सुखों के इर्द-गिर्द भटक रहा है। गिरता है... रोता है... हँसता है... दौड़ता है... और एक दिन रोगाक्रान्त बनकर मौत की गोद में समा जाता है | अरबों मनुष्यों की यह अवदशा है | कैसे इनको बचाया जाये? कैसे इनको सही रास्ते लाया जाये? बहुत गंभीर प्रश्न है। कभी-कभी मन कहता है : छोड़ो सब चिन्ता और चलो हम अपने रास्ते आगे बढ़ जायें!
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