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जिंदगी इम्तिहान लेती है ® जहाँ पर प्रेम होता है... भीतरी लगाव होता है... वहाँ पर वैचारिक या __व्यावहारिक मतभेदों को तनिक भी जगह नहीं होती है। @ श्रद्धायोग्य, भक्तियोग्य एवं प्रीतियोग्य पात्रों के साथ कभी भी वाद-विवाद
या अर्थहीन चर्चा में नहीं उतरना चाहिए। ® जो हमारे विचारों से सहमत नहीं भी हो... उनके प्रति तिरस्कार या अनादर
रखना उचित नहीं है। ® सहजीवन के लिए वैचारिक सहिष्णुता अत्यंत आवश्यक होती है। ® बाहरी रूप-रंग की चकाचौंध अस्थायी होती है... जीवन की यात्रा में बाहरी
सामंजस्य से कहीं ज़्यादा भीतरी संवादिता जरूरी है।
पत्र : २०
प्रिय मुमुक्षु!
धर्मलाभ, मनुष्य का यह स्वभाव है कि लंबी प्रतीक्षा के बाद कुछ मिलता है, तो मनुष्य ज़्यादा आनंद अनुभव करता है।
तेरा पत्र कितनी प्रतीक्षा के पश्चात मिला! परंतु मिला इसलिए आनंद! तेरा पत्र पढ़ता गया... मानो ऐसा लगा कि तू प्रगाढ़ निराशा से आक्रान्त हो गया है। मैं नहीं जानता कि तू इतना विकल क्यों है? तेरे अन्दर इतनी पीड़ा क्यों है? क्यों तू यह व्यथा... यह उदासी... यह विषाद अपने मन में सँजोए हुए हैं? मुमुक्षु! क्या तू मेरे ऊपर विश्वास करेगा? यदि मैं तेरे दिल पर छाई हुई व्यथा और उदासी की घनघोर घटा को बिखेरने में सहायता करूँ तो! मैं तेरे कोमल हृदय को शांति, प्रसन्नता और पवित्रता से भरना चाहता हूँ।
तेरे इस पत्र से मैं इतना जान सका हूँ कि तेरे परिवार के बड़ों के साथ तेरे वैचारिक मतभेद उग्र बनते जा रहे हैं। तू अपने विचारों को सत्य मानता है, तेरे माता-पिता अपने विचारों को सत्य मानते हैं। ____ मेरे प्रिय मुमुक्षु! तू मुझे एक बात सही-सही बताएगा? क्या तू तेरे परिवार में से किसी का भी प्रेम चाहता है? तूने अपने चित्त में निर्णय कर लिया है न कि 'घर में से किसी का भी प्रेम नहीं मिलेगा तो चलेगा...' उस व्यक्ति का
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