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जिंदगी इम्तिहान लेती है ___ महानुभाव! तू अपने बाह्य-आंतरिक विकास की रूपरेखा बनाकर उस दिशा में आगे बढ़ता रह | दूसरों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करता रह । दूसरों के तेरे प्रति क्या कर्तव्य हैं, उस विचार में उलझना नहीं। दूसरे क्या करते हैं, यह तू क्यों देखता है? तू अपने कर्तव्यों का पालन करता चल । अपनी इच्छाओं के अनुसार चलने के लिये दूसरों को मजबूर करने का प्रयत्न छोड़ दे। तेरा मन शान्त हो जायेगा। तुझे मानसिक शान्ति प्राप्त होगी।
जिस-जिस पर तेरा अधिकार नहीं है, जिनकी तुझ पर जिम्मेदारी नहीं है, उनकी चिन्ता करना छोड़ दे। क्यों चिन्ता करना? वे लोग नहीं चाहते हैं कि तू उनकी चिन्ता करे! वे लोग तेरी राय नहीं चाहते हैं, तू क्यों उनकी चिन्ता करता है? तू क्यों उनको राय देने जाता है? मानेगा मेरी बात? इससे तुझे कोई हानि होनेवाली नहीं है। इससे तेरा कोई अवमूल्यन होनेवाला नहीं है।
बम्बई में एक लड़का मेरे पास आया था। कॉलेज में पढ़ता था। उसके पिता थे, माँ थी, भाई थे, भाभी थी... संपन्न परिवार था। इस लड़के की बस यही शिकायत थी 'मेरी बात कोई सुनता नहीं है...।' ___ जब उसके माता-पिता मेरे पास आये, उन्होंने कहा : 'आप कृपा कर उसको समझाइये कि वह अपने भाइयों को और भाभी को हर बात में राय न दें... वह यह समझता है कि वही समझदार है... उसमें ही अक्ल है... इससे उसके भाई-भाभी वगैरह नाराज़ हैं, हमारा तो बेटा है, इसलिए उसकी हरकतें सहन कर लेते हैं... परन्तु आजकल के भाई-भाभी कैसे सहन करेंगे?'
वह लड़का अभी पढ़ाई करता था... उसके दोनों बड़े भाई पढ़े-लिखे और सज्जन थे। दुकान चलाते थे। इसको खाने-पीने और पहनने के लिये सब कुछ मिलता था। उसकी आवश्यकतायें पूरी होती थी। परन्तु ये भाईसाब तो चाहते थे कि उसके दोनों बड़े भाई उसकी राय लिया करें! भाभी तो उसके कहे अनुसार ही काम करे! इस मनोदशा के कारण वह अपने घर में अप्रिय बन गया था। मैंने उसको समझाने की भरसक कोशिश की... थोड़े दिन ठीक चला, फिर वही-कुत्ते की दुम टेढ़ी की टेढ़ी!
तू अनाग्रही बन जा। इस विश्व में जो होनेवाला होता है, वही होता है। जिस मनुष्य की जैसी भवितव्यता होती है, वैसा ही बनता है। तू चिंता मत कर | तू अपने ही कर्तव्यों का विचार कर | बड़े-बड़े महापुरुषों की भी सभी इच्छायें पूर्ण नहीं हो पाती हैं... तो फिर तेरी-मेरी सभी इच्छायें कैसे पूर्ण
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