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जिंदगी इम्तिहान लेती है
१५४ नहीं हो तो ऐसे फालतू विचार छोड़ दे। अर्थहीन... सारहीन विचार करके दिमाग को बिगाड़ मत।
आग्रह छोड़ दे। मन को निराग्रही बना दे। तेरा स्वभाव आग्रही बन गया है। तू अपनी इच्छाओं के अनुसार सब कुछ तीव्रता से चाहता है, यह तीव्रता तुझे अशान्त बनाये रखती है। इस तीव्रता ने तुझे कई बार परेशान कर डाला है... जानता है न? आग्रही-दुराग्रही स्वभाव तुझे कहीं पर भी शान्ति से नहीं जीने देगा | तू भव की भ्रमणा में भटक जायेगा | हालाँकि आज भी तू भ्रमणाओं में भ्रमित ही है। मेरी यह बात तेरे हृदय को दुःख पहुँचायेगी... परंतु क्या करूँ? स्पष्ट बात लिखे बिना अब दूसरा कोई चारा नहीं है।
कितनी बीहड़ विकल्पजाल में तु फँस गया है - जरा तो तु सोच। कितने अच्छे संयोग तुझे मिले हैं? कितना पवित्र वातावरण तुझे मिला है? आत्मविकास करने का कितना उन्मुक्त क्षेत्र तुझे मिला है? क्या तू इसका मूल्यांकन नहीं करेगा? छोटी सी जिन्दगी ऐसे ही बिता देगा? तेरी भूलों को तू कभी स्वीकार नहीं करेगा?
तूने कभी अपनी भूलों का स्वीकार किया है? हमेशा दूसरों की ही भूलें तू देखता रहा है। क्या पाया तूने? कौन-सी संपत्ति तूने पा ली? तू सोच : तेरे अपने कौन हैं? तेरे प्रति हार्दिक स्नेह रखने वाले कौन हैं? तूने वैसे स्नेहीजनों को भी ठुकरा दिये! तेरी आग्रहवृत्ति ने कितने-कितने नुकसान किये हैं - जानता है न?
शायद तू यह पत्र पढ़कर लिखेगा : 'मैं अब जीना ही नहीं चाहता हूँ!' तो कहाँ जायेगा? मृत्यु के बाद दूसरा जीवन मिलेगा... वह जीवन जीना पड़ेगा! जीवन तो जीना ही पड़ेगा... यह जीवन नहीं तो दूसरा कोई जीवन! और तू क्या यह मानता है कि आत्महत्या करने वाले को इस मानव जीवन से बढ़िया दूसरा जीवन मिलेगा? भ्रमणा में मत रहना। दुस्साहस मत करना।
तेरे प्रति हार्दिक स्नेह होने से ही ये सारी बातें लिखी है| तेरा जीवनमहल मिट्टी में ढह न जाय, तू घोर दुःख और अशान्ति से मुक्त बने, इसी पवित्र भावना से यह पत्र लिखा है। मेरे हृदय के पवित्र आशय पर जरा सा भी अविश्वास तू नहीं करेगा-इस श्रद्धा से ये बातें लिखी हैं।
वर्षाकाल निकट आ रहा है। चातुर्मास डीसा में व्यतीत होगा। यदि तेरी अनुकूलता हो और तू डीसा आये तो प्रत्यक्ष बहुत सारी बातें हो सकती है।
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