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जिंदगी इम्तिहान लेती है ® जीवन जीने के लिये दृष्टि को बदलना अनिवार्य है। औरों को स्वार्थी,
मतलबी और तुच्छ मानकर अपने आप को 'सुपर' बताने की मनोवृत्ति
घटिया एवं खतरनाक है। ® माँ तो भावमंगल है! माँ के आशीर्वाद दुनिया की सबसे ज़्यादा कीमती
उपलब्धि है। ® जो हमें न तो चित्त की प्रसन्नता दे... न वातावरण को प्रेम व मधुरता से भर
दे... वैसी जीवन-व्यवस्था का क्या महत्त्व है? ® सुखी बनने की कोशिश में तड़पने के बजाय सुखों को बिखेरने का, सुखों
को बाँटने का आनंद लेना चाहिए! ® मैत्री की प्रथम शर्त है - औरों के हित का विचार!
ADVAN
पत्र : १
प्रिय गुमुक्षु!
धर्मलाभ, तेरा पत्र मिला, पत्र पढ़कर प्रसन्नता हुई, परमात्मा जिनेश्वर की अचिन्त्य कृपा से यहाँ कुशलता है।
तू ने पत्र में लिखा कि 'माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी-परिवार वगैरह सब स्वार्थी हैं... कभी-कभी उन सब के साथ संघर्ष हो जाता है... मुझे इन सब के प्रति घृणा सी हो गई है... इत्यादि । पहली बात तो यह है कि तुझे अपनी दृष्टि बदलनी पड़ेगी। उपकारी... महान उपकारी ऐसे माता-पिता को तू 'वे स्वार्थी हैं' की दृष्टि से देखता है... कैसी अशुद्ध-मलिन है, यह दृष्टि? तू माता को 'स्वार्थी' देखता है, फिर, जब-जब उसके सामने तू आता होगा, उसके प्रति विनय, उसकी सेवा-भक्ति और उसके प्रति उचित कर्तव्यों का पालन तो होता ही नहीं होगा!
तू इसी वजह से अशांत है, तू अपनी जननी को शांति नहीं देता है! तेरे जीवन में इसी वजह से इतने संकट आते हैं, तूने माता को भावमंगल नहीं माना है और उसके वात्सल्यपूर्ण आशीर्वाद नहीं पाए हैं! तू इसी वजह से परेशान है, चूँकि तूने कभी माता के उपकारों को याद ही नहीं किया...!
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