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जिंदगी इम्तिहान लेती है
१०४ और दुःख दूसरों के देखने होंगे। दूसरों के पाप देखे नहीं और अपने दुःखों को देखे नहीं, तो शांति का मार्ग मिल जाये। धर्म का मार्ग मिल जाये।
दूसरों के दुःख देखने से उसके हृदय में दया और करुणा उभड़ेगी । अपने पाप देखने से पश्चात्ताप होगा और पापमुक्त होने के विचार आएँगे। ___ परंतु यहाँ एक प्रश्न पैदा होता है। दूसरों को... जिनकी हमारे ऊपर जिम्मेदारी होती है, उनके पाप नहीं देखें तो उनको कैसे सुधारेंगे? उनको पापों से कैसे बचाएँगे? यदि उनको नहीं बचाएँ तो जिम्मेदारी का पालन नहीं होगा।' __ आश्रितों के पाप देखे जा सकते हैं, परंतु उनके प्रति द्वेष नहीं होना चाहिए। बीमार को डॉक्टर देखता है... परंतु बीमार के प्रति रोष नहीं करता है। प्रेम से उसका निदान करता है और दवाई देता है। रोग शरीर के हैं, तो पाप आत्मा के हैं। शरीर से रोगी के प्रति करुणा करते हैं, तो आत्मा से पापी के प्रति करुणा क्यों नहीं? करुणा से उसको समझाया जाये और पापमुक्त करने के उपाय बताए जायें। उपाय वह करे तो अच्छा है, नहीं करें तो भी उसके प्रति धिक्कार की भावना मत रखो।
किसी की भी जिम्मेदारी इतनी सख्त रूप से अपने सिर पे मत ले लो कि जिससे आप व्याकुल बन जाओ। वास्तव में हर मनुष्य की जिम्मेदारी उसकी स्वयं की है। हम तो फालतू ही सारी दुनिया की जिम्मेदारी सिर पे चढ़ाए फिरते हैं। 'सब जीव पापमुक्त हो जाये', वैसी भावना रखना उचित है, परंतु जो पापमुक्त नहीं बनते हैं, उनके प्रति रोष या क्रोध करना अनुचित है। दुनिया के सारे संबंध एक नाटक के संबंध जैसे तो हैं। नाटक में जो संबंध दिखाए जाते हैं... क्या वे सच होते हैं? नहीं। वैसे, इस भवनाटक के संबंध भी सच नहीं होते। यह तो मात्र व्यवहार दशा है। निश्चय से तो आत्मा निर्बंध है और अलिप्त है। इस विचार को हृदय में सुरक्षित रखकर जीवन व्यतीत करना आवश्यक है। मुझे तो मेरी मनःशांति में इस तत्त्वविचार ने अच्छा सहयोग दिया है। संबंधों के व्यापक बंधन और जिम्मेदारियों ने मनुष्य को इतना मूढ़ बना दिया है कि वह अपने आपको खो बैठा है। जैसे उसका स्वयं का कोई अस्तित्व ही न हो। जो है, वह संबंध है। जो है, वह दुनिया है। परंतु समझ लेना चाहिए कि संबंधों के लिए हम नहीं है, अपने लिए संबंध है। दुनिया के लिए हम नहीं हैं, अपने लिए दुनिया है। अपने आपको खो दिया... तो फिर संबंध किसलिए?
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