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जिंदगी इम्तिहान लेती है
९३ ® घटनाएँ तो बनती रहती हैं... परिस्थितियाँ तब्दील होती ही रहती हैं... उनमें
कैसे सोचना... कैसे विचारना... यह कला हमें हस्तगत कर लेनी चाहिए,
ताकि व्यर्थ के संघर्षों से बचा जा सके। ® विचारों में यदि क्रोध-मान-माया और लोभ का पुट नहीं मिला है, तो
कर्मबंध इतना सख्त या प्रगाढ़ नहीं होगा। ® हमारा दर्शन जब वास्तविक नहीं होता है, तब वह निरा प्रदर्शन बन कर रह
जाता है। वस्तु का यथा स्वरूप दर्शन ही हमें रागद्वेष से बचा सकता है। • कभी किसी का दोष निगाहों में आ जाए तो भी सोचना कि दोष आत्मा के
नहीं हैं... दोष तो शरीर के हैं... और शरीर तो जड़ है! ® आत्मा की विभावदशा की जानकारी के साथ-साथ स्वभावदशा की जानकारी
भी जरूरी है।
पत्र : २१
प्रिय गुमुक्षु,
धर्मलाभ, बड़ौदा, आणंद वगैरह गाँव-शहरों में दो मास परिभ्रमण कर हम वापस यहाँ डभोई में आ गए हैं। यहाँ आते ही तेरा पत्र मिला था, परंतु तुरंत ही प्रत्युत्तर नहीं लिख सका।
तेरे पूर्वपत्र में तूने तीन प्रश्न पूछे हैं, आज तो उन प्रश्नों का ही प्रत्युत्तर लिख रहा हूँ, दूसरी बातें भी लिखनी हैं, परंतु आज नहीं लिखूगा। आज तो तेरे तीन प्रश्नों के उत्तर भी संपूर्ण लिख सकूँ तो बहुत है! ।
तेरा पहला प्रश्न : प्रतिदिन अनेक प्रकार के प्रसंग, अनेक घटनाएँ मेरे आस-पास घटती हैं, उन घटनाओं पर मैं कैसे-कैसे विचार करूँ कि जिससे पापकर्मों का बंध न हो।
तेरा प्रश्न महत्वपूर्ण है। किस प्रसंग में हमें क्या सोचना चाहिए, किस घटना में हमें कौन से विचार करने चाहिए-यह सोचने की कला हस्तगत... मनोगत हो जाये तो पापकर्म का बन्धन तो रुक जाये, पाप-कर्मों की निर्जरा (नाश) भी होती रहे।
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