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जिंदगी इम्तिहान लेती है
८७ भगवंत ने कहा : 'हे भिक्खु! यदि ऐसा हो सकता होता तो मेरे पूर्व के तीर्थंकरों ने सब जीवों को मोक्ष में भेज दिया होता! चूँकि गुण, ज्ञान, और शक्ति में सभी तीर्थंकर समान होते हैं। परन्तु विश्वव्यवस्था में ऐसा हो ही नहीं सकता है कि एक आत्मा दूसरी आत्मा के कर्मबन्धन तोड़े और उसको मुक्तिपद दिला दे! हर आत्मा को अपने व्यक्तिगत पुरुषार्थ से ही मुक्ति मिलती है। मैं तो पुरुषार्थ में मार्गदर्शक बन सकता हूँ | मुक्ति का ज्ञान दे सकता हूँ।'
कितना निराश हो गया होगा वह श्रमण? नहीं, भगवंत ने उसको निराश नहीं किया था, पुरुषार्थ के लिए प्रेरित किया था। परावलंबन को छोड़कर स्वावलंबी बनने हेतु उत्साहित किया था। इससे तो उस श्रमण की परमात्मा के प्रति प्रीति और भक्ति खूब बढ़ गई होगी। मुक्तिपथ की आराधना में वह पुरुषार्थशील बन गया होगा। __मुक्ति की बात लिख रहा हूँ... निर्वाण की बात लिख रहा हूँ... परन्तु हृदय में एक प्रश्न उठता है... 'तुझे बंधन प्रिय हैं, या मुक्ति? तुझे जीवन प्रिय है, या निर्वाण?' मैं अपनी बात बताता हूँ तुझे । गहन चिन्तन में जब-जब डूब जाता हूँ, तब मुक्ति... निर्वाण प्रिय लगता है। जब बाह्य दुनिया के सम्पर्क में मन
और इन्द्रियाँ आती है, तब बंधन प्रिय लगते हैं। कितनी-कितनी जड़-चेतन वस्तुओं से बंध गया है मन!! क्या बताऊँ तुझे? हाँ, कभी-कभी इन सारे बंधनों को तोड़ कोई नीरव... निर्जन जंगल में... या कोई शांत.... प्रशांत गुफा में जाकर शेष जीवन व्यतीत करने की तीव्र तमन्ना जाग उठती है। परन्तु कोई न कोई बन्धन रोकता रहा है....।
आज हमारा जीवन भी ज़्यादा सामाजिक बन गया है। साधु को सामाजिक प्राणी नहीं बनना चाहिए, साधु को तो सदैव आध्यात्मिक बना रहना चाहिए। परन्तु आज वैसी व्यवस्था भी नहीं कि साधु सदैव आध्यात्मिक वातावरण में पलता रहे और बढ़ता रहे। हर बात विशेषकर सामाजिक दृष्टि से सोची जा रही है। बन्धन ही बन्धन! लक्ष्य मुक्ति का दिया जा रहा है... जीवन बन्धनों में जकड़ा जा रहा है! कुछ बंधन तो बहुत प्रिय बन गए हैं। कुछ बंधनों को अनिवार्य मान लिया गया है। अनिवार्य बंधनों से प्यार हो जाता है। इस उलझन में मुक्ति और निर्वाण, विस्मृति के सागर में डूब गए हैं!
आज जो निर्वाण की बात लिख रहा हूँ... वह तो परमात्मा का निर्वाणकल्याणक कार्तिक-अमावस्या को आ रहा है... इसलिए याद आ गया! अन्यथा निर्वाण में प्राण रमते ही कहाँ हैं!'
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