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प्रवचन-८०
| gq बच्चे को प्रिय भोजन मिलता है और फुदकने लगता है, यह काम है। किशोरों को प्रिय संगीत सुनने मिलता है और उल्लास से भर जाते हैं, यह काम है | युवा स्त्री-पुरुषों को अपना प्रिय पात्र मिल जाता है और भोगसुख में लीन हो जाते हैं, यह काम है। वृद्धों को प्रिय भोजन, अच्छे वस्त्र और प्रिय शब्द मिलते हैं और वे हर्षान्वित होते हैं, यह 'काम' है।
इन्द्रियों की सामान्य-साधारण तृप्ति...प्रीति वह काम नहीं है। वह तृप्ति, वह प्रीति प्रगाढ़ हो, औद्धत्ययुक्त हो...तब उसे 'काम' कहते हैं। इन्द्रियों की ऐसी प्रगाढ़ प्रीति पाने के लिए पुरुषार्थ करना पड़ता है, वह 'कामपुरुषार्थ' कहलाता है। साधन भी उपेक्षणीय नहीं हैं :
धर्मपुरुषार्थ करने के लिए साधन तो इन्द्रियाँ ही हैं। अशक्त और अतृप्त इन्द्रियाँ गृहस्थ मनुष्य को धर्मपुरुषार्थ में सहायता नहीं देती हैं। अशक्त और अतृप्त मनुष्य धर्मपुरुषार्थ कैसे कर सकता है? कोई धर्मक्रिया करेगा तो भी मरते-मरते करेगा। विक्षिप्त मन से करेगा। अतृप्त इन्द्रियाँ अर्थपुरुषार्थ में भी बाधाएँ डालती हैं। इसलिए गृहस्थ मनुष्य को उचित कामपुरुषार्थ करना उपादेय माना गया है।
पाँच इन्द्रियों को उनके प्रिय विषय देकर तृप्त करना एक बात है, और पाँच इन्द्रियों को तृप्त करने के लिए ही जीना, दूसरी बात है। धर्मपुरुषार्थ को एवं अर्थपुरुषार्थ को क्षति न हो, व्याघात न हो उस प्रकार कामपुरुषार्थ करना चाहिए। जैसे धर्मपुरुषार्थ करते समय अर्थपुरुषार्थ एवं कामपुरुषार्थ की उपेक्षा नहीं करने की है वैसे कामपुरुषार्थ में धर्मपुरुषार्थ एवं अर्थपुरुषार्थ की उपेक्षा नहीं करने की है। जो लोग उपेक्षा करते हैं वे दुःख पाते हैं, त्रास और वेदना पाते हैं। दुनिया विज्ञापनों की दीवानी है :
एक-एक इन्द्रिय के विषय में लुब्ध-आसक्त जीव, अपने प्राणों को गँवा देते हैं - यह आप नहीं जानते क्या? तो फिर पाँचों इन्द्रियों के विषयों में आसक्त जीव की कैसी दुर्दशा हो सकती है - उस बात का अनुमान करें। आफत तो यह है कि संसार के बाजार में एक से एक आकर्षक विषय-वस्तुएँ सजी सजाई रखी जाती हैं। लोग-अज्ञानी लोग जहाँ से भी निकलते हैं उधर की चमकीली वस्तुओं को देखकर ललचाते हैं और पाने के लिए मचलने लगते
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