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प्रवचन-८०
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टीकाकार आचार्यश्री ने 'काम' की परिभाषा अच्छी दी है :
यत: आभिमानिकरसानुविद्धा सर्वेन्द्रियप्रीतिः सः कामः । सामान्यतया 'काम' का अर्थ यौनलिप्सा से किया जाता है। प्रचलित मान्यता के अनुसार 'काम' को सन्तति-उत्पादन का कारण माना गया है। परन्तु 'काम' की यह परिभाषा एकांगी है। टीकाकार आचार्यश्री ने यहाँ जो व्याख्या प्रस्तुत की है वह सर्वांगीण व्याख्या प्रतीत होती है। उन्होंने कहा : सभी-पाँचों इन्द्रियों की प्रीति-उसी का नाम काम है। वह प्रीति भी सामान्य नहीं, उल्लसित प्रीति | उछलती हुई प्रीति ।
यौनाचार तो मात्र स्पर्शनेन्द्रिय की संतुष्टि तक सीमित है। यौनाचार, कामपुरुषार्थ का एक छोटा रूप है। उसको मात्र यौनतृप्ति का आधार मान लेना, भारी भूल है।
काम-वासना और काम-पुरुषार्थ के बीच जो अन्तर है-'डिफरन्स' है, सर्व प्रथम उसे समझ लेना चाहिए। काम-पुरुषार्थ वह कामवासना नहीं है। कामवासना जगती है मोहनीय कर्म के उदय से | पुरुष-वेदरूप मोहनीय कर्म के उदय से स्त्रीविषयक कामवासना पैदा होती है। स्त्री-वेदरूप मोहनीय कर्म के उदय से पुरुषविषयक कामवासना पैदा होती है। नपुंसक-वेदरूप मोहनीय कर्म के उदय से सजातीय और विजातीय-उभयविषयक कामवासना पैदा होती है। वासना का सम्बन्ध मन से होता है। मोहनीय कर्म का उदय तृप्ति नहीं देता है, अतृप्ति की आग सुलगाता है। वेदोदय से बेचैनी पैदा होती है...प्रीति पैदा नहीं होती है। _इन्द्रियों की तृप्ति और तृप्ति से प्रीति तभी मिलती है जब 'वीर्यान्तराय कर्म' का क्षयोपशम होता है। काम-पुरुषार्थ का संबंध वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से है। वीर्यान्तराय कर्म यानी वीर्योल्लास में अवरोधक कर्म | अवरोधक कर्म दूर होने पर ही वीर्योल्लास होता है। वीर्योल्लास ही काम-पुरुषार्थ का प्रेरक तत्त्व है।
इन्द्रियजन्य प्रीति का नाम 'काम' है। वैषयिक सुखों की प्रीत्यात्मक अनुभूति 'काम' है। फ्रायड जैसे मनोवैज्ञानिकों ने 'काम' का अर्थ मात्र यौनलिप्सा ही किया है। कामुकता के धरातल पर ही उन्होंने 'काम' की चर्चा की है। फ्रायड वगैरह का चिन्तन अपूर्ण है। वे 'काम' की व्यापकता नहीं समझ पाये।
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