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प्रवचन-९३
२१६ बनवाया नहीं है और जो जो व्यक्ति मांडवगढ़ से आता है...... मेरी प्रशंसा करता है पेट भर के! विश्रामगृह की प्रशंसा करता है मुँह फाड़ के! क्या बात है? मुझे स्वयं वहाँ जाकर देखना होगा और तलाश करनी पड़ेगी कि वास्तव में वह विश्रामगृह कौन चलाता है और मेरे नाम से क्यों चलाता है? मेरा यश बढ़ाने का प्रयोजन भी तो होना चाहिए....।'
देवगिरि का महामंत्री एक दिन उस विश्रामगृह में पहुँचा। विश्रामगृह देखकर आश्चर्यचकित हो गया। वहाँ की सभी प्रकार की सुविधाएँ देखकर दंग रह गया। 'पानी की तरह यहाँ पैसे बह रहे हैं...... कौन बहा रहा होगा?' उसने मुनीम को बुलाकर पूछा : 'यह विश्रामगृह किसने बनवाया है?'
'देवगिरि के महामंत्री ने.....' मुनीम कहाँ पहचानता था! उसने तो जो जवाब देना था दे दिया।
'असत्य क्यों बोलते हो? मैं ही देवगिरि का महामंत्री हूँ।' अब मुनीम सम्हल गया। उसने महामंत्री को नतमस्तक होकर प्रणाम किया और कहा :
'क्षमा करना मेरा अपराध, यह विश्रामगृह चला रहे हैं मांडवगढ़ के महामंत्री पेथड़शाह!'
'और नाम मेरा क्यों बताया जाता है?' महामंत्री ने पूछा।
'यह बात हम नहीं जानते, हमको तो हमारे महामंत्री का जो आदेश है, उस आदेश के अनुसार आपका नाम बताते हैं।'
देवगिरि के महामंत्री ने सोचा कि 'अब मुझे पेथड़शाह से ही मिलना पड़ेगा।' और वे दोनों महामंत्री मिले। देवगिरि के महामंत्री ने कहा : 'आपने मुझे कितना यश दिया? मेरी कीर्ति कितनी फैला दी? आज से आप मेरे मित्र हैं । कहिए, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?'
पेथड़शाह ने कहा : 'मुझे देवगिरि के मध्य भाग में विशाल जगह चाहिए, मैं वहाँ जिनमंदिर बनाना चाहता हूँ।' देवगिरि के महामंत्री ने जगह देने का वचन दिया और देवगिरि पधारने का निमंत्रण दिया । पेथड़शाह देवगिरि गये, जमीन मिल गई और भव्य जिनमंदिर भी बन गया।
इसको कहते हैं निपुण बुद्धि! कार्य का प्रारंभ कितने चातुर्य से किया! परिणाम कितना बढ़िया आया? सारे देश में पेथड़शाह की प्रशंसा हुई। पेथड़शाह को स्वयं को कितना आनंद हुआ होगा? सुकृत की अनुमोदना करते करते उन्होंने कितना महान् पुण्यानुबंधी पुण्यकर्म बाँधा होगा?
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