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प्रवचन-९३
२१५ भी अच्छा!' बुद्धिमान् मनुष्य कार्य का प्रारंभ समुचित उपायों से करता है।
अनुचित आरंभ करने से कार्य सफल नहीं होता है। इससे मनुष्य का मन विषाद से भर जाता है। घर के लोग और समाज के लोग उपहास करते हैं जिससे दूसरे कार्य करने के लिए उत्साह नष्ट हो जाता है। इसलिए परिणाम का विचार भी गंभीरता से कर लेना चाहिए । 'मैं यह कार्य करता हूँ, मुझे श्रेष्ठ फल की प्राप्ति होनी ही चाहिए।' पेथड़शाह की निपुण बुद्धि रंग लाई :
आप जानते हो न, देवगिरि में जिनमंदिर का निर्माण करने के लिए मालवा के महामंत्री पेथड़शाह ने कार्य का प्रारंभ कैसे किया था? पंद्रहवीं शताब्दी के आसपास की यह घटना है। मालवा की राजधानी उस समय मांडवगढ़ में थी। महामंत्री थे पेथड़शाह | मांडवगढ़ वगैरह अनेक नगरों में महामंत्री ने जिनमंदिरों का निर्माण करवाया था। देवगिरि का राज्य अलग था। उस राज्य का महामंत्री ब्राह्मण था। कट्टर ब्राह्मण था। देवगिरि में उसने एक भी जिनमंदिर नहीं होने दिया था। पेथड़शाह की इच्छा थी वहाँ जिनमंदिर बनाने की। बड़े निपुण बुद्धिवाले थे महामंत्री। कार्यसिद्धि के उपायों पर विशद विचार किया। मन में निर्णय कर लिया कि 'देवगिरि में मंदिर बनेगा ही।' देवगिरि के ब्राह्मण महामंत्री के प्रेम संपादन करने का उपाय सोचा । सत्ता का उपयोग करने का नहीं सोचा! बल का उपयोग करने का नहीं सोचा। कितना अच्छा उपाय खोज निकाला महामंत्री ने!
उन्होंने मांडवगढ़ और देवगिरि के रास्ते पर एक 'विश्रामगृह' बनवाया। एक प्रकार की बढ़िया 'होटल' ही समझ लो! वहाँ खाने की व्यवस्था, स्नानादि की व्यवस्था, आराम करने की व्यवस्था....सब प्रकार की व्यवस्था कर दी। मुसाफिरों के लिए बहुत अच्छी सुविधा हो गई और वह भी निःशुल्क! ___ भोजन भी श्रेष्ठ! 'दाल और रोटी, तीसरी बात खोटी.....' वाली बात वहाँ नहीं थी। नौकर लोग भी विनीत, विनम्र और कार्यदक्ष रखे गये थे।
जो भी मुसाफिर पूछता : यह विश्रामगृह किसने बनाया है? कौन पुण्यशाली इतना सारा खर्च कर रहा है? तो विश्रामगृह का मुनीम (मेनेजर) कहता है : 'देवगिरि के महामंत्री की ओर से यह विश्रामगृह चल रहा है। लोग देवगिरि के महामंत्री की बहुत प्रशंसा करते हैं। प्रशंसा के शब्द देवगिरि के महामंत्री के कानों में पहुँचे। उसको बड़ा आश्चर्य हुआ। 'मैंने तो कहीं पर भी विश्रामगृह
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