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प्रवचन- ९३
पेथड़शाह में ऐसी निपुण बुद्धि कहाँ से आयी थी ? जानते हो? आचार्यदेव श्री धर्मघोषसूरिजी की परम कृपा थी उन पर । आचार्यदेव की एक - एक आज्ञा का वे पालन करते थे। आचार्यदेव का संपर्क-समागम बनाये रखते थे । निपुण बुद्धि के लिए महत्त्वपूर्ण बात यही है ! प्रकृष्ट प्रज्ञावाले महापुरुषों का संपर्क बनाये रखना। ऐसे महापुरुषों का अपने जीवन के प्रश्नों में मार्गदर्शन लेते रहना। उनके मार्गदर्शन के अनुसार कार्य करना । कर सकोगे आप लोग ?
सभा में से : वकीलों के साथ तो ऐसा ही व्यवहार करते हैं!
महाराजश्री : चूँकि व्यावहारिक उलझनों से वकील आपको मुक्त कर सकता है, ऐसा आपका विश्वास है न! आप वकील को अपने से ज्यादा बुद्धिमान् मानते हो! इसलिए रुपये देकर बुद्धि लेते हो। यहाँ तो रुपये देनेलेने की बात नहीं है! निःस्वार्थ और निःस्पृही ऐसे सत्पुरुषों के सामने तर्कवितर्क नहीं करने चाहिए, वे जो भी मार्गदर्शन दें, ग्रहण कर लेना चाहिए ।
'हम तो बुद्धिहीन हैं, दुर्भाग्यग्रस्त हैं,' ऐसा मानने से तो मनुष्य पतन की गर्ता में ही गिरता है । निराशावादी विचारों को दिमाग में से बाहर फेंक दो । आशावादी बनो। अपने भविष्य की समुन्नत कल्पनाएँ करते रहो। इसलिए कल्याणमित्र की खोज करो । कल्याणमित्र मिल जाने पर आप उनका साथ कभी मत छोड़ो। वे आपको निर्धारित लक्ष्य की ओर प्रगति करवायेंगे। कभी ऐसा भी प्रसंग आयेगा कि उनकी बात आपके छोटे से दिमाग में नहीं जँचेगी, फिर भी आप उनकी बात मान लेना ।
गुरु के सामने दलील नहीं करना :
एक बार ईसु ख्रिस्त अपने शिष्य मेथ्यू के साथ पदयात्रा करते जा रहे थे। बीच में मेथ्यू का गाँव आया । वहाँ समाचार मिला कि मेथ्यू के पिता का आज ही स्वर्गवास हुआ है। मेथ्यू ने ईसा के सामने देखा । ईसा ने कहा : 'मेथ्यू, क्या इस गाँव में दूसरा कोई मनुष्य मरा होता तो तू शोकमग्न होता ? नहीं होता न? तेरे मन में अभी 'ये मेरे पिता थे, ऐसा ममत्व पड़ा है इसलिए तू शोकमग्न बना। ममत्व ही तो तोड़ना है ।'
मेथ्यू सुनता रहा। ईसा वहाँ नहीं रुके। वे दूसरे गाँव चले गये। मेथ्यू ईसा के साथ ही चला। दूसरे गाँव जाकर ईसा ने मेथ्यू से कहा : 'मेथ्यू तू उस गाँव जा और पिता की मृत्यु की उत्तरक्रिया कर के आ जा ।' मेथ्यू चला गया !
दूसरे शिष्यों ने पूछा : 'आप ने ऐसा क्यों किया?' ईसा ने कहा : 'उस गाँव
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