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प्रवचन-७३ ___ आनंदित होना स्वाभाविक था! उसका भाग्योदय... पुण्योदय हुआ था। उसका पुण्योदय ही उसको जंगल में ले गया था और पुण्योदय ने ही नागार्जुन जैसे योगी का परिचय करवाया था। परिचय के बाद, देद ने उस परिचय को सफल बनाने के लिए बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ किया था। प्रारब्ध और पुरुषार्थ से उसके जीवन में...दरिद्रता के अन्धकारयुक्त जीवन में सुख का सूर्य उदित हुआ था। कृतज्ञता का गुण महान् है :
योगी ने उसको आशीर्वाद दिया और घर जाने की इजाजत दी। देद ने योगी को श्रद्धा से वंदना की और घर जाने को चल दिया। रास्ते में उसका मन योगी के विषय में ही सोचता रहता है! 'लोहे का सोना...!! इस कलियुग में भी ऐसी सिद्धि वाले महापुरुष हैं...और कैसे महान् परोपकारी! मेरे जैसे तुच्छ व्यक्ति पर उन्होंने कैसा महान् उपकार किया! मैं उनका उपकार कभी भी नहीं भूलूँगा...।'
देद में यह 'कृतज्ञता' का गुण था | उपकारी के उपकारों को नहीं भूलना, यह बहुत बड़ा गुण है। देद सोचता है : 'मैं योगी को दिया हुआ वचन, बराबर निभाऊँगा | मैं किसी याचक को निराश नहीं करूँगा । क्यों करूँगा निराश जब कि मेरे पास ‘सुवर्णसिद्धि' है। परन्तु, सर्वप्रथम तो मैं अपनी दरिद्रता दूर करूँगा। मेरे सर पर जिनका-जिनका कर्ज है, उनको ब्याजसहित रुपये दे दूंगा। बाद में अनेक अच्छे काम करूँगा। मंदिर बनवाऊँगा... धर्मशालाएँ बनवाऊँगा... दीन-अनाथों को दान दूँगा....।।
उसके मन में अनेक अच्छी-अच्छी भावनाएँ पैदा होती हैं। 'पुण्यानुबंधी पुण्य' का उदय हो, तब ही ऐसी उत्तम भावनाएँ पैदा होती हैं।
देद अपने घर पहँचा | योगी ने जो सोना बनाया था, वह सोना देद को दे दिया था, देद वह सोना अपने साथ ले आया था। देद समय को परखना चूक गया :
देद को अब जो देश-काल का विचार करना था, वह नहीं कर पाया । न प्रजा का विचार किया, न राजा का विचार किया। अब उसकी दरिद्रता दूर हो गई थी, वह अचानक धनवान् बन गया था। उसने, जिन लोगों को रुपये देने थे, दे दिये। अपने घर को अच्छा बनाया। रहन-सहन भी बदल गया। नगर के लोग सोचने लगे : 'देद के पास इतने रुपये कहाँ से आ गये? उसने कोई
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