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प्रवचन- ७३
'हे पूज्य, आप ऐसा क्यों बोलते हैं? देवराज इन्द्र भी आपके आदेश का उल्लंघन करने में समर्थ नहीं हैं । मैं कौन हूँ? मेरी तो कोई शक्ति नहीं है। मैं सच्ची लगन से आपके वचन की आराधना करूँगा... जैसे कोई चिन्तामणि रत्न की आराधना करता है वैसे । '
सुवर्णसिद्धि दे दी :
देद के विनययुक्त वचन सुनकर योगी प्रसन्न हुआ, उसने कहा : 'देद, वणिक लोग बड़े लोभी होते हैं । उनके पास लाखों-करोड़ों रुपये हों...तो भी दूसरे याचकों को एक कौड़ी देने को भी तैयार नहीं होते। इसलिए मैं तुझे कहता हूँ कि किसी भी याचक को, जो तेरे द्वार पर आये, नकारा मत करना । निराश मत करना। मैं तुझे सुवर्णसिद्धि देना चाहता हूँ।'
सुना आप लोगों ने? नागार्जुन जैसे सिद्धयोगी ने वणिकों के विषय में कैसा अभिप्राय दिया है ? ज्यों ज्यों रुपये बढ़ते हैं त्यों त्यों उदारता बढ़ती है या लोभ ? कृपणता ही बढ़ती है न? वणिक होगा परन्तु 'जैन' होगा या 'श्रावक' होगा तो कृपण नहीं होगा! सही बात है न?
सभा में से : हम लोग तो नाम मात्र के जैन हैं... हमारे में सच्चा जैनत्व ही कहाँ है ?
महाराजश्री : सच्चा जैनत्व पाने की तमन्ना है ? सच्चे जैन बनने से कौन रोकता है? मात्र वणिक यानी व्यापारी मत बने रहो । एक नीतिशास्त्रकार ने भी वणिक को लताड़ा है। उन्होंने कहा है : 'राजा यदि किसी पर प्रसन्न होता है तो एक खेत दे देता है, खेत का मालिक किसान यदि प्रसन्न होता है तो थोड़ा धान्य दे देता है, परन्तु वणिक यदि तुष्ट होता है हालाँकि जल्दी होता नहीं है, पर कभी यदि गलती से हो भी जाय तो मात्र हाथों से ताली ही देता है। यानी कुछ भी नहीं देता है। नागार्जुन ने इस दृष्टि से देद को पहले ही सावधान कर दिया। सुवर्णसिद्धि देना है न?'
देद ने नागार्जुन योगी के चरणों में प्रणाम कर योगी की आज्ञा स्वीकार कर ली। आज्ञापालन करने के लिए वचनबद्ध हुआ । योगी ने उसको सुवर्णसिद्धि का प्रयोग कर बताया। लोहे के कुछ टुकड़ों पर, वनस्पति के रस से लेप करवा कर उन्हें अग्नि में डलवाया। लोहे के टुकड़े सोना बन गये। बाद में योगी ने देद के पास से वैसा ही प्रयोग करवाया, प्रयोग सफल हो गया । देद बड़ा आनंदित हो उठा ।
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