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प्रवचन-६३ H. माता-पिता को सबसे पहले अपनी और अपने परिवार की
तंदुरुस्ती की चिंता करना है। दूसरा खयाल करना है अपना और अपने परिवार के मन का। मन आर्तध्यान और रौद्रध्यान में न भटक जाये इसके लिए सतत सतर्क रहना है। तीसरी चिंता करनी है आत्मा की। क्रोधादि कषायों का नाश होता रहें और क्षमादि गुण विकसित
होते रहें। .जो लोग प्रेम, करुणा, वात्सल्य जैसे तत्व समझते नहीं हैं वे
क्या विद्वान होते हैं? ऐसी कोरी विद्वत्ता क्या काम की? .रुद्रसोमा को सम्यज्ञान प्राप्त था। संसार की वास्तविकता
का उसे ज्ञान था। इसीलिए वह संसार के सुखों में अनासक्त
अलिप्त रह सकी थी। .मातृदेवो भव' इस देश की संस्कृति का मूल मंत्र था। आज
तो यह आदर्श नजर ही नहीं आता! रुद्रसोमा जितनी माताएँ कितनी? आर्यरक्षित जैसे पुत्र कितने? .संस्कृति सर्वनाश के कगार पर आ पहुँची है। फिर भी अपने
पास आशा की एक किरण है और वह है वीतराग का शासन! उस शासन को भलीभाँति समझ लो!
करक
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प्रवचन : ६३ ।
परम करूणानिधान, महान् श्रुतधर, आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी, स्वरचित 'धर्मबिंदु' ग्रन्थ के प्रारंभ में गृहस्थ के सामान्य धर्मों का प्रतिपादन करते हैं, गृहस्थ जीवन की सुचारु आचारसंहिता ही बता दी है उन्होंने! यदि आप लोग इस आचारसंहितानुसार अपनी जीवन-व्यवस्था बना लें तो कितना सुन्दर और पवित्र जीवननिर्माण हो जाय! विशिष्ट धर्मपुरुषार्थ करने की पात्रता आ जाय आप लोगों के जीवन में।
सोलहवाँ सामान्य धर्म है माता-पिता की पूजा | यह सामान्य धर्म सापेक्ष है। यदि माता-पिता गुणवान् हैं, संतानों के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाते हैं तो वे पूजनीय बनते हैं। ऐसे पूजनीय माता-पिता का उचित आदर करना, सेवा करना संतानों का पवित्र कर्तव्य बनता है।
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