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प्रवचन- ५
६९
गहराई में जाकर सोचना पड़ेगा। बिना सोचे समझे गतानुगतिक धर्म-आराधना करने से कोई विशेष लाभ नहीं है। वैसे तो अपनी आत्मा ने गत जन्मों में, अनन्त अनन्त जन्मों में काफी धर्म किया हुआ है । फिर भी आज दुःखपूर्ण, वेदनापूर्ण संसार में भटक रहे हैं। कोई शाश्वत् सुख, पूर्ण आनन्द प्राप्त नहीं हुआ। इस जीवन में भी सोचेंगे नहीं तो क्या होगा? आधि-व्याधि और उपाधि का अन्त नहीं आएगा। जन्म और मृत्यु का अंत नहीं आएगा । जन्म जब तक लेना पड़ेगा, दुःख आयेंगे ही। धर्म से अपने को जन्म मिटाना होगा। पुनः पुनः जन्म नहीं लेना पड़े, वैसा धर्मपुरुषार्थ करना होगा ।
परन्तु यह कार्य क्रमशः होगा। हो सकता है, पाँच-सात भव भी हो जायँ । प्रारंभ तो करना पड़ेगा न? दृष्टि खुल जानी चाहिए। तो फिर दुर्गतियों में यानी नरकगति और तिर्यंचगति में तो जाना बंद ही समझो। धर्म आपको उच्च मनुष्यगति और उच्च देवगति में ही ले जायेगा....!
सम्यक्दृष्टि-आमूल परिवर्तन का अंजन :
प्रश्न : क्या धर्म करनेवालों के लिए सद्गति ही है ?
उत्तर : हाँ, यदि जीवात्मा की ज्ञानदृष्टि खुल गई है, जीवात्मा को सम्यक्दर्शन प्राप्त हो गया है, तो वह सद्गति का ही आयुष्यकर्म बांधेगा । सम्यक्दर्शन की उपस्थिति में 'आयुष्यकर्म' देवगति का ही बंधता है, ऐसा नियम है। सम्यक्दर्शन एक विशिष्ट गुण है, आत्मा का । यह गुण प्रगट होने पर आत्मा के विश्वदर्शन में, जड़-चेतन पदार्थों के दर्शन में आमूल परिवर्तन आ जाता है। कषायों की तीव्रता नहीं रहती और आत्मदर्शन, परमात्मदर्शन की एक झलक आ जाती है। संसार का भीतरी रूप उसे दिखाई देता है । वह संसार को हृदय से चाहता नहीं है, धिक्कारने लगता है। हाँ, ऐसा जीव बाह्य दृष्टि से संसार के पापों में भी उलझा हुआ हो सकता है । संसार के वैषयिक सुखों में लीन दिखाई देगा, परन्तु उसका हृदय अनासक्त होता है । क्योंकि वह जानता है कि 'मैं जो कर रहा हूँ, वह करने जैसा नहीं है।' ऐसी जाग्रत अवस्था में जीव दुर्गति में नहीं जा सकता। वह जाएगा सद्गति में, देवगति में ।
देवगति में उस जीवात्मा को विपुल सुख - भौतिक सुख प्राप्त होते हैं । वहाँ किसी प्रकार का भौतिक, शारीरिक दुःख होता ही नहीं । धर्म का यह प्रभाव है। ऐसे अद्भुत ऐश्वर्य और सुखों के बीच भी आत्मा यदि 'सम्यक्दर्शन' गुण को बनाए रखती है, जाग्रत रहती है, तो देवभव का आयुष्य पूर्ण होने पर वह
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