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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-२१ २८४ ईर्ष्या से प्रेम की मृत्यु हो जाती है : दूसरे जीवों का किसी भी प्रकार का सुख देखकर ईर्ष्या मत करो। वह सुख पुण्यानुबंधी पुण्य के उदय से मिला हो या पापानुबंधी पुण्य के उदय से मिला हो । वह सुख उस जीवात्मा को भोगना आता हो या नहीं आता हो। वह अपने सुख का त्याग करे या न करे | आपको उसके सुख से कोई लगाव नहीं रखना चाहिए। प्रमोद-भावना की पहली शर्त यह है कि किसी भी सुखी के प्रति ईर्ष्या मत करो। ईर्ष्या से प्रेम मर जाता है। प्रेम के बिना प्रमोदभाव जाग्रत ही नहीं हो सकता। जो जीव मिथ्यादृष्टि है यानी जिनको सम्यकज्ञान, सम्यकदर्शन नहीं मिला है, जो मिथ्या मान्यताओं में भ्रमित हो गए हैं, उन जीवों में भी दया, दान, शील इत्यादि उत्तम गुण देखकर अनुमोदना करने की है। उनके गुण देखने से उनके प्रति भी द्वेष, तिरस्कार पैदा नहीं होगा। हाँ, संसार के कोई भी जीवात्मा के प्रति द्वेष, धिक्कार, तिरस्कार नहीं करना है। अपने हृदय को ऐसा बनाना का है। सभा में से : मिथ्यादृष्टि जीवों के गुणों की अनुमोदना करने से उनके मिथ्यात्व की भी अनुमोदना नहीं हो जाती है? मिथ्यात्व की अनुमोदना का दोष नहीं लगता है? गुण तो सबके अनुमोदनीय हैं : __ महाराजश्री : नहीं, अनुमोदना का, प्रमोद-भावना का अपना विषय है गुण। मिथ्यात्व गुण नहीं है, दोष है। अनुमोदना हम गुणों की करते हैं, नहीं कि दोषों की | उनके मिथ्यात्व के प्रति तो करुणा होनी चाहिए | इस जीवात्मा का मिथ्यात्व दूर हो और सम्यकदर्शन प्राप्त हो, सम्यकज्ञान प्राप्त हो, इसको परम सुख, परम शान्ति प्राप्त हो!' ऐसा विचार करना चाहिए। मिथ्यात्व की निन्दा ऐसी नहीं करो कि जिससे मिथ्यात्वी के पास रहे हुए गुणों की भी निन्दा हो जाय । गुणों की निन्दा कर दी तो बरबाद हो जाओगे। निन्दा-प्रशंसा करने में इतनी सावधानी बरतना अति आवश्यक है। किसी व्यक्ति के दोषों की निन्दा करते समय आपका ध्यान उनके गुणों की ओर जाता है? गुणों की निन्दा न हो जाय, इसकी सावधानी रखते हो? यदि आप सामनेवाले के गुणों की ओर थोड़ा-सा भी देख लोगे तो आपका निन्दा-रस मंद हो जाएगा। परन्तु दोष-दर्शन इतना प्रबल होता है कि गुणदर्शन होने ही For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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