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प्रवचन- २१
२८३
अब रानी पसीने से नहा गई । घबरा उठी। साध्वीजी के प्रभाव और प्रताप से वह अभिभूत हो गई । उसने कह दिया : 'मैंने परमात्मा की मूर्ति इस कचरे के ढ़ेर में डाल दी है । '
साध्वीजी ने कहा : 'तूने बहुत बड़ा पाप किया है। तू शीघ्र ही परमात्मा की मूर्ति निकाल ले यहाँ से और जहाँ से मूर्ति लाई है वहाँ ले जा । तूने यह घोर पाप किया है। इस पाप का कैसा घोर दुःख आएगा, तू जानती है ?' रोष और करुणा से मिश्रित वाणी से साध्वीजी ने रानी को समझाया। रानी ने सारी बात बता दी साध्वीजी को । दासी ने गाड़ी हुई मूर्ति निकाल ली और नगर में चली गई। साध्वीजी भी उसी नगर में जानेवाली थी, चली गई! साध्वी की बात सुनकर कनकोदरी को अपनी भूल समझ में आ गई। उसने मूर्ति को मंदिर में रखवा दिया और साध्वीजी के पास जाकर अपनी गलती का पश्चात्ताप भी किया... परन्तु उसने ईर्ष्याजन्य द्वेष से प्रेरित होकर परमात्मा की मूर्ति की जो घोर आशातना की, उसकी वजह से ऐसा पापकर्म बँधा कि अंजना के भव में २२-२२ वर्ष तक पति का वियोग रहा और कलंकित होना पड़ा। निर्दोष होने पर भी व्यभिचारिणी का कलंक उसके सर आया।
कर्मों का तत्त्वज्ञान समझना जरूरी है :
कैसी-कैसी प्रवृत्ति करने से, कैसे-कैसे शब्द बोलने से और कैसे-कैसे विचार करने से कैसे-कैसे कर्म बंधते हैं और उन कर्मों के उदय से कैसे दुःख आते हैं... कैसे-कैसे सुख मिलते हैं, यह तत्त्वज्ञान पाया है क्या? यह तत्त्वज्ञान पाने से ही आप अयोग्य और निषिद्ध प्रवृत्ति का त्याग कर सकोगे । पाप-वाणी और पाप - विचारों का भी त्याग कर सकोगे। इतना समझ लो कि पापकर्मों के उदय से ही दुःख आता है। पापकर्मों का उदय तभी आता है कि जब जीव ने किसी भी भव में वे कर्म बांधे हों। पापकर्म बंधते है पापाचरण से। मन-वचन और काया से जीवात्मा पापाचरण करता है और इससे पापकर्म बाँधता है । यदि दुःखों से डरते हो तो पापों से डरते रहो । दुःखों का भय लगता है तो पापों का भय लगना चाहिए । पापों का त्याग करो। ईर्ष्या बहुत बड़ा पाप है, क्योंकि ईर्ष्या में से असंख्य पाप पैदा होते हैं और मनुष्य का जीवन नष्ट हो जाता है। संसार की चार गतियों में जीव भटक जाता है।
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