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प्रवचन- २०
२६५
और परमात्मा की मूर्ति सहायक बन सकती है । परमात्मा की मूर्ति में सच्चे परमात्मा की कल्पना साकार बन सकती है । परन्तु इस कल्पना को साकार करने के लिए परमात्ममूर्ति में मन और नयन स्थिर बनने चाहिए।
मंदिर में किससे परिचय करते हो ?
आप लोग प्रतिदिन मंदिर जाते हो न ? परमात्मा की मूर्ति के दर्शन और पूजन रोजाना करते हो न ? क्या दर्शन-पूजन करते समय आपका यह लक्ष होता है कि 'मुझे, परमात्मा का परिचय करना है, क्योंकि मुझे उनसे प्रेम करना है!' नहीं, यह लक्ष्य ही नहीं बना है । इसलिए दर्शन-पूजन में न तो मन स्थिर होता है, न नयन ! आँखें परमात्मा की मूर्ति पर स्थिर रहती हैं क्या ? मन परमात्मा के गुणों के चिन्तन में स्थिर बनता है क्या ? नहीं, कुछ नहीं ! मन भटकता है संसार की गलियों में! चूँकि संसार से मतलब है ! संसार से प्यार करना है ! इसलिए संसार का परिचय करते रहते हो। मंदिर में भी संसारी जीवों का परिचय कर लेते हो न! मंदिर किसलिए बनाए गए हैं? संसारी जीवों का परिचय करने या परमात्मा का परिचय करने के लिए? मंदिर में संसार की, घर-परिवार की, समाज की बातें करते हो न ? याद रखना, परमात्मा के मंदिर में, परमात्मा से ही प्रेम करना है, परमात्मा से ही परिचय करना है, यदि वहाँ दूसरे दूसरे काम किए तो कड़ी सजा होगी आपको। कर्मसत्ता सजा करेगी ही। इसलिए कहता हूँ कि सावधान रहना । भले ही आप धनवान हों, रूपवान हों या बुद्धिमान कहलाते हों, कर्मसत्ता किसी भी अपराधी को क्षमादान नहीं करती है।
अपनी कल्पनासृष्टि में परमात्मा को लाने का श्रेष्ठ स्थान है परमात्ममंदिर । श्रेष्ठ आलम्बन है परमात्मा की मूर्ति । दर्शन-पूजन और स्तवन करने का प्रयोजन भी यही है । परमात्मा से आन्तरिक प्रीति बाँध लेनी है। आन्तरिक प्रीति परिचय से, घनिष्ट परिचय से ही बँधती है।
परमात्मा के जीवनचरित्र पढ़ने चाहिए :
तीर्थंकर परमात्माओं के जीवनचरित्र पढ़ने चाहिए । जीवनचरित्र पढ़ने से, उनके जीवन के महान सत्कार्यों से उनके प्रति प्रीति बढ़ती है। 'तीर्थंकरों ने ऐसे-ऐसे महान अच्छे कार्य किए थे!' उनके प्रति 'अहोभाव' जाग्रत होता है। जब आप भगवान ऋषभदेव को जीवानन्द वैद्य के भव में पढ़ोगे जीवानन्द वैद्य की बीमार साधु की सेवाभक्ति देखोगे, चकित रह जाओगे ! भगवान महावीर
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