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प्रवचन-१६
२१४ जब भोजन तैयार हो गया, महाकवि भोजन करने बैठे, इतने में द्वार पर भिक्षुक ने दस्तक लगाई : 'भिक्षां देहि' की आवाज आई। महाकवि तुरंत बोले : 'देवी, जाओ, द्वार पर भिक्षुक खड़ा है, यह मेरी थाली का भोजन उसको दे दो।' कवि-पत्नी कुछ भी बोले बिना खड़ी हुई और जाकर याचक को खिचड़ी दे आई। याचक आशीर्वाद देता हुआ चला गया। कवि-पत्नी ने आकर, अपनी थाली कवि के सामने रख दी और कहा : 'नाथ! आज मुझे इतना हर्ष है कि मेरी तो क्षुधा ही शान्त हो गई है! इसलिए आप भोजन करलो, मैं आपके पास बैठी हूँ। कोई अरुचि नहीं, कोई गुस्सा नहीं कोई कलह नहीं, कोई झुंझलाहट नहीं! कवि-पत्नी ने अपना स्वभाव कैसा बना दिया होगा? कैसी उच्च विचारधारा वाली होगी वह सन्नारी! ऐसी सहधर्मिणी तभी मिलती है जब महान् पुण्य का उदय हो।
महाकवि ज्यों भोजन का प्रारंभ करने जा रहे हैं, द्वार पर आवाज आई : 'भिक्षां देहि!' महाकवि खड़े हो गए।... स्वयं जाकर याचक को थाली की थाली प्रेम से दे दी! याचक आशीर्वाद देता हुआ चला गया | महाकवि आकर पत्नी के पास बैठ गए। अब भोजन समाप्त हो गया था, कुछ भी बचा नहीं था। फिर भी दोनों प्रसन्न थे! करुणा में से आन्तरिक प्रसन्नता का जन्म होता ही है। कभी करुणा बड़ी परीक्षा लेती है :
परन्तु करुणा कभी मनुष्य को घोर वेदना में भी पटक देती है! ऐसा ही हुआ। द्वार पर तीसरा याचक आया, 'भिक्षां देहि!' अब महाकवि का मुख म्लान हो गया। 'मेरे पास याचक को देने के लिए कुछ भी नहीं है, मेरे द्वार से याचक खाली हाथ वापस लौटेगा?' महाकवि खड़े हुए, द्वार पर गए। महाकवि की आँखें गीली-गीली हो गई थीं। वे बोले : 'भाई, अब देने को कुछ नहीं बचा है' बेचारा याचक... महाकवि की आँखों में आँसू देखकर तुरंत ही चला गया । परन्तु महाकवि की मनोवेदना का पार नहीं रहा । "मैं भूखे को कुछ नहीं दे सका...।' इतना गहरा सदमा पहुँचा कि महाकवि का प्राणपखेरू तत्काल उड़ गया। निश्चेतन देह पड़ा रहा। करुणा की पराकाष्ठा है यह । अत्यन्त दया इसको कहते हैं। आपकी क्या हालत है ?
धर्म का प्रारंभ दया और करुणा से होता है। आप लोग तो धर्मात्मा हो न? एक दिन में तीन-चार भिखारी आ जायँ, तो क्या होता है?
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