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प्रवचन-१
१३ होते क्षय हो जाता है कर्मों का, और आत्मा परम विशुद्ध बन जाती है। ऋषिमुनियों का यही ध्येय, यही आदर्श और यही लक्ष्य होता है-अपनी संपूर्ण धर्मआराधना का।
'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ की रचना करनेवाले आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी असाधारण प्रज्ञावाले महर्षि थे। उनका हृदय करुणा का सागर था, उनका लिखा हुआ एक-एक शब्द, एक-एक सूत्र हमारी आत्मा को छूता है-हमारे हृदय तक पहुँचता है। आप लोग यदि ध्यान से इस ग्रन्थ को सुनेंगे, तो आपका हृदय नाच उठेगा, आपकी आत्मा अपूर्व आनन्द अनुभव करेगी।
ग्रन्थकार ने परमात्मा को नमस्कार करके ग्रन्थरचना का प्रारंभ किया है। अपने भी परमात्मा को प्रणाम कर और ग्रन्थकार को भी नमस्कार करके 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ पर प्रवचन शुरू करते हैं | मेरी अल्प बुद्धि से, अति अल्प ज्ञान से मैं ग्रन्थ और ग्रन्थकार को पूर्णरूपेण तो न्याय नहीं दे सकूँगा, जो कुछ मैं समझ पाया हूँ... आपको बताऊँगा। मुझे ग्रन्थकार के प्रति पूर्ण श्रद्धा है, ग्रन्थ मेरा अतिप्रिय है, इसीलिए मैंने प्रवचन हेतु इस ग्रन्थ को चुना है। ग्रन्थ और ग्रन्थकार के प्रति मेरे हृदय में जो प्रेम और श्रद्धा है, वही मुझे मुखरित करते हैं, मुखरित होने में भी आनन्द आता है!
जिनेश्वर भगवन्त के अचिन्त्य अनुग्रह से और गुरुजनों की कृपा से मैं इस महान ग्रन्थ की विवेचना करने में समर्थ बनूं...यही मेरी कामना है।
धर्म के अचिन्त्य प्रभाव का वर्णन करके ग्रन्थकार 'धर्मबिन्दु' का किस प्रकार प्रारम्भ करते हैं-वह कल बताया जाएगा।
आज, बस इतना ही।
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