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प्रवचन- १
१२
कूद पड़ते
बौद्ध धर्म के ग्रंथों का बंडल था ! वह समुद्र में फेंकने के लिए तैयार हो गया, तब ज्ञानगुप्त और त्यागराज ने कहा : 'यह तो ज्ञान का अमूल्य खजाना है, इसे आप समुद्र में मत फेंकिए, उसके बदले हम दोनों समुद्र में हैं... मनुष्य देह नश्वर है, ज्ञान शाश्वत् है, ऐसे अपूर्व धर्मग्रन्थों का त्याग नहीं करें। इन ग्रन्थों से तो हजारों-लाखों मनुष्यों को निर्वाण का मार्ग मिलेगा, परम सुख प्राप्त होगा...' यह कहते हुए उन दोनों भारतीय पंडितों ने अपने आपको उस तूफानी समुद्र में झोंक दिया।
दुःख का कारण अज्ञान :
ज्ञान के प्रति कैसा प्यार ! धर्मग्रन्थों के प्रति कैसी अद्भुत श्रद्धा ! क्योंकि दोनों ने उन धर्मग्रन्थों को पढ़ा था, उन्होंने ज्ञानामृत का आस्वाद लिया था । आपने कभी ज्ञानामृत चखा भी है ? घोर अज्ञान और अधर्म से मनुष्य आत्मा को भूल ही गया है, महात्माओं को भी भूल गया है, परमात्मा तो उसे याद ही नहीं आते! दिन-प्रतिदिन दुःख - त्रास और असंख्य विडंबनाओं के दलदल में मनुष्य फँसता जा रहा है। ऐसे मनुष्यों को देखकर करुणावंत महापुरुषों का हृदय करुणार्द्र बन जाता है और उन मनुष्यों को दु:खमुक्त करने के लिए वे ज्ञान का प्रकाश देते हैं। इसीलिए आचार्यदेव ने 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ की रचना की है।
निर्मल बुद्धि अनिवार्य :
धर्मतत्त्व को समझना - यथार्थ रूप में समझना सरल नहीं है । इसके लिए बुद्धि सूक्ष्म चाहिए, निर्मल चाहिए, अर्थात् बुद्धि कोई दुराग्रह से ग्रस्त नहीं होनी चाहिए। शान्त चित्त से, सूक्ष्मता में गहराई में जाकर धर्मतत्त्व का चिन्तन करें। है न बुद्धि में सूक्ष्मता ? है न बुद्धि में निर्मलता ? यदि 'धर्म' को समझना है और सही धर्माराधना करनी है, तो ऐसी बुद्धि अवश्य चाहिए ।
जिस ग्रन्थ की रचना ऋषि-मुनि या आचार्य करते हैं, जिनको संसार के भौतिक सुखों का आकर्षण या ममत्व नहीं होता, उनका लक्ष्य जैसे जीवों के प्रति उपकार का, आत्मिक उपकार का होता है वैसे स्वयं के प्रति भी उनके विशेष ध्येय होते हैं। एक ध्येय होता है तत्त्वचिन्तन, शास्त्र अनुप्रेक्षा । दूसरा ध्येय होता है कर्मनिर्जरा का, अर्थात् आत्मा को कर्मबंधनों से मुक्त करने का । शास्त्र-स्वाध्याय से, तत्त्वचिंतन से विपुल कर्मनिर्जरा होती है। निर्जरा होते
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