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प्रवचन- १४
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जैसी डिग्रियाँ ले लेने मात्र से असाधारण नारी नहीं बन जाती। फिल्मी वेशभूषा पहनने से या कृत्रिम श्रृंगार रचने से नारी असामान्य नहीं बन जाती । असामन्य और असाधारण नारी तो वह बन सकती है, जिसका मन शुद्ध होता है, दृढ़ होता है और ज्ञानामृत से भरा हुआ होता है । दुःखों के बीच जो धैर्य रख सकती हो, सुखों में जो नम्र रह सकती हो और मैत्री, प्रमोद, करुणा एवं माध्यथ्य-भावनाओं से जिसका मन नवपल्लवित रहता हो । आज के युग में इन बातों की आशा किससे करें ? शत्रुता, निर्दयता, ईर्ष्या, धिक्कार और तिरस्कार से लोगों के मन भ्रष्ट हो गए हैं, गन्दे और निर्बल बन गए हैं। विषयराग और जीवद्वेष से मनुष्य आज घोर अंधकार में भटक रहा है। मोहमूढ़ता से व्याकुल मनुष्य कार्य-अकार्य का भेद ही भूल गया है। कर्तव्य को अकर्तव्य और अकर्तव्य को कर्तव्य मान रहा है, दूसरों को मनवा रहा है। ऐसी परिस्थिति में 'धर्म' का उद्भव हो कैसे ? मदनरेखा के पास था विशुद्ध चित्त, विशुद्ध चित्त ही तो परम धर्म है। मदनरेखा युगबाहु की कल्याणमित्र है । परलोक का पाथेय दे रही है।
सद्गति-दुर्गति का आधार मृत्यु :
मैत्रीपूर्ण हृदय से और मधुपूर्ण शब्दों से मदनरेखा युगबाहु की अन्तरात्मा को स्पर्श करती है। अन्तरात्मा में से अशुद्ध भावों को दूर कर शुद्ध भावों को स्थापित करना, मामूली 'ऑपरेशन' नहीं है, गंभीर 'ऑपरेशन' है। जैसे मनुष्य का ‘हार्ट' हृदय बदलने का ऑपरेशन गंभीर होता है, वैसे हृदयगत भावों का परिवर्तन करने का ऑपरेशन गंभीर होता है । शरीर के भीतर का अशुद्ध अवयव दूर कर, अच्छा अवयव स्थापित करनेवाले डॉक्टर का लक्ष मरीज को जिन्दा रखने का होता है, वैसे मन के अशुद्ध विचारों को दूर कर, पवित्र... विशुद्ध विचारों को स्थापित करनेवालों का लक्ष जीवात्मा की भवपरंपरा सुधारने का होता है। मदनरेखा इस समय युगबाहु का पारलौकिक हित सोचती है। वह समझती है कि 'मृत्युसमय मनुष्य के जैसे मनोभाव होते हैं, जैसे अध्यवसाय होते हैं, जैसी लेश्या होती है, तदनुसार उस मनुष्य की सद्गति या दुर्गति होती है।'
दुर्घटना ऐसी बन गई है कि युगबाहु के मन में अपने भाई मणिरथ के प्रति तीव्र रोष आए ही। ‘मणिरथ ने जान बूझकर मेरी हत्या का प्रयास किया है,' यह बात युगबाहु समझ गया है। इससे उसका शौर्य उछल आना और प्रतिहिंसा का भाव जाग्रत होना स्वाभाविक था । इस अशुद्ध भाव को मिटाना
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