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प्रवचन-११
१५४ अपूर्व भावोल्लास जाग्रत होगा। छद्मस्थ-अवस्था का चिन्तन करने के पश्चात् कैवल्य अवस्था का चिन्तन करने का है। तीर्थंकर परमात्मा को सर्वज्ञता और वीतरागता प्रकट होती है, उसके बाद वे धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं। उनको करना होता है सर्व जीवों का कल्याण | कैसा सर्वोत्तम उपकार करते हैं वे विश्व के जीवों पर! धर्म-देशना देकर वे जीवों के प्रबल राग-द्वेष समूल नष्ट करते हैं। कर्मों का क्षय करते हैं। परमात्मा के सामने दृष्टि स्थापित कर इस प्रकार चिन्तन करें कि : 'हे परोपकारी! धर्मतीर्थ की स्थापना कर आपने संसार के जीवों पर अनन्त उपकार किया है। समवसरण में बिराजकर आप कैसी अमृतमयी धर्म-देशना देते हो! देव-देवेंद्र, पशु और मानव, स्त्री और पुरुष-सभी सुनते हैं आपका उपदेश और सभी अपनी-अपनी भाषा में समझते हैं! जो कोई जीवात्मा आपकी शरण में आता है, आप उसकी रक्षा करते हो। उसके रोग-शोक, आधि, व्याधि दूर हो जाती हैं | आप अचिन्त्य चिन्तामणि हो, आप भवसागर में नैयारूप हो। हे परमात्मा! केवलज्ञान और केवलदर्शन में आप प्रतिसमय, प्रतिक्षण चराचर विश्व को देख रहे हो, जान रहे हो।'
यह है कैवल्य-अवस्था का चिन्तन । यदि स्वतः आत्मा में से यह चिन्तन पैदा नहीं होता हो तो रट लेना, याद कर लेना और बोलना, परन्तु पूजनविधि में अवस्था चिन्तन को जोड़ जरूर देना। रूपातीत अवस्था :
चौथी अवस्था है रूपातीत अवस्था। आठों कर्मों का क्षय होने से आत्मा रूपरहित, शरीररहित बनती है। सिद्ध, बुद्ध और मुक्त ऐसी आत्मा का चिन्तन करने का है। जिसको अपन 'मोक्ष' कहते हैं, निर्वाण कहते हैं, बस, उसका चिन्तन करने का । है 'परमात्मन्! आप सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए। अशरीरी बन गए। अब कभी भी आपको जन्म नहीं लेने का, शरीर नहीं धारण करने का, मृत्यु नहीं पाने का। आप कृतकृत्य हो गये। अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और वीतरागता में परमसुख-परमानन्द का अनुभव करते हो। चराचर विश्व के सर्व द्रव्य और सर्व पर्यायों को आप देखते हो। भूत-भावि और वर्तमानकाल के सर्व पर्यायों को एक साथ जानते हो। इस संसार से सर्वथा परे... परन्तु अनन्त करुणा के धारक...हे परमात्मन्! जो भी मनुष्य आपको अपने ध्यान में लाता है, आप उसका उद्धार कर देते हो।'
रूपातीत-अवस्था का चिन्तन करने की यह रूपरेखा है। इस प्रकार तीनों
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