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प्रवचन-१०
१३४ थी। चतुरा ने तुरंत ही महामंत्री का वस्त्र ले जाकर पथमिणि को दे दिया और राजमहल की करुण कथा भी सुना दी। चतुरा रो पड़ी। 'मैंने तो रानी के अच्छे के लिए यह उपचार किया, परन्तु रानी घोर संकट में फँस गई, साथ में पवित्र महामंत्री भी कलंकित हुए।' पथमिणी ने दासी को आश्वासन दिया
और चिंता नहीं करने को समझाया। हालाँकि पथमिणी के हृदय में भी खलबली तो शुरू हो गई थी। नाराज राजा क्या कर सकते हैं, आश्रितों की कैसी बरबादी कर सकते हैं, यह बात पथमिणी अच्छी तरह जानती थी। उसके मन में थोड़ा-सा भय आ गया, थोड़ी-सी चिन्ता भी हुई। परन्तु इतने में महामंत्री हवेली में आ गए | महामंत्री का मुख निर्विकार था, निराकुल था। वे स्वस्थ थे, शान्त थे, उनको मालूम पड़ गया था कि 'राजा मुझ पर नाराज है, मुझ पर कलंक आया है। परन्तु इस बात का कोई असर उन पर नहीं था।
दासी चतुरा को विदा देकर महामंत्री ने पथमिणी के सामने देखा। पथमिणी महामंत्री के चरणों में बैठ गई। उनकी आँखें आँसुओं से भर आईं। 'मेरे निमित्त मेरे पति पर कलंक आया, रानी पर कलंक आया ।' पथमिणी को इस बात का दुःख था। महामंत्री ने पथमिणी से कहा : 'क्यों रो रही हो? चिंता क्यों करती हो? निष्कलंक होते हुए भी कलंक आया, क्योंकि पूर्वजन्मों में किसी अकलंक को कलंकित करने का पाप किया होगा! उस पापकर्म का फल, पापकर्म की सजा समता से सहन करनी चाहिए। चिन्ता मत करो, अपने हृदय में धर्म है, धर्म अपनी रक्षा करेगा ही। धर्म की शरणागति में अभय रहो! राजा का कोई दोष नहीं है। मेरे पापकर्म ने राजा को निमित्त बनाया है, राजा पर रोष मत करना।'
पथमिणी महामंत्री की विचारधारा में बहती रही, जैसे गंगा की धारा में बहती हो! दुःख के आँसू हर्ष के आँसू में बदल गए। वह महामंत्री की प्रशांत मुखमुद्रा को देखती रही। न कोई भय, न कोई द्वेष! मंत्रीपद चले जाने का कोई भय नहीं था, मिथ्या कलंक देनेवाले राजा पर या कदंबा रानी पर द्वेष नहीं था। ऐसी आत्मा 'यथोदितं' धर्मानुष्ठान कर सकती है और धर्मानुष्ठान में स्थिरचित्त बन सकती है। भयजन्य चंचलता नहीं, द्वेषजन्य उन्मत्तता नहीं। पथमिणी लीलावती के लिए चिंतित है :
पथमिणी को एक दूसरा विचार आया और उसके मुँह पर उद्वेग छा गया । उसने महामंत्री से कहा : 'स्वामीनाथ, उस बेचारी निर्दोष लीलावती का क्या
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