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सेवा-परोपकार
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सेवा-परोपकार
प्रश्नकर्ता : इसमें कोई हर्ज नहीं है।
दादाश्री : तू बोलना ज़रूर। तब वह कहें कि 'मुझसे दुःख दे दिया जाए तो? वह तुझे नहीं देखना है। वह मैं हाईकोर्ट में सब कर लूँगा। वह वकील को देखना है न? वो मैं कर दूंगा सब।' तू मेरा यह वाक्य बोलना न सुबह में पाँच बार! हर्ज है इसमें? कुछ कठिनाई है इसमें? सच्चे दिल से 'दादा भगवान' को याद करके बोले न, फिर हर्ज क्या है?
प्रश्नकर्ता : हम ऐसा ही करते हैं।
दादाश्री : बस, वही करना। दूसरा कुछ करने जैसा नहीं है इस दुनिया में।
संक्षिप्त में, व्यवहार धर्म संसार के लोगों को व्यवहार धर्म सिखाने के लिए हम कहते हैं कि परानुग्रही बन। खुद के लिए विचार ही न आए। लोक कल्याण के लिए परानुग्रही बन। यदि अपने खुद के लिए त खर्च करेगा तो वह गटर में जाएगा और औरों के लिए कुछ भी खर्च करना वह आगे का एडजस्टमेन्ट है।
शुद्धात्मा भगवान क्या कहते है कि जो दूसरों का सँभालता है, उसका मैं सँभाल लेता हूँ और जो खुद का ही सँभालता है, उसे मैं उसीके ऊपर छोड़ देता हूँ।
संसार का काम करो, आपका काम होता ही रहेगा। जगत् का काम करोगे, तो आपका काम अपने आप होता रहेगा और तब आपको हैरानी होगी।
संसार का स्वरूप कैसा है? जगत के जीव मात्र में भगवान रहे हुए हैं, इसलिए किसी भी जीव को कुछ भी त्रास दोगे, दुःख दोगे तो
अधर्म खड़ा होगा। किसी भी जीव को सुख दोगे तो धर्म खड़ा होगा। अधर्म का फल आपकी इच्छा के विरुद्ध है और धर्म का फल आपकी इच्छानुसार है।
_ 'रिलेटिव धर्म' है, वह संसार मार्ग है। समाजसेवा का मार्ग है। मोक्षमार्ग समाजसेवा से परे है, स्व-रमणता का है।
धर्म की शुरूआत मनुष्य ने जब से किसी को सुख पहुँचाना शुरू किया तब से धर्म की शुरूआत हुई। खुद का सुख नहीं, पर सामनेवाले की अड़चन कैसे दूर हो, यही रहा करे वहाँ से कारुण्यता की शुरूआत होती है। हमें बचपन से ही सामनेवाले की अड़चन दूर करने की पड़ी थी। खुद के लिए विचार भी नहीं आए, वह कारुण्यता कहलाती है। उससे ही 'ज्ञान' प्रकट होता है।
रिटायर होनेवाला हो, तब ओनररी प्रेसीडन्ट होता है। ओनररी वह होता है। अरे, मुए! आफतें क्यों मोल ले रहा है? अब रिटायर होनेवाला है, तब भी? आफतें ही खड़ी करता है। ये सभी आफतें खड़ी की हैं।
और यदि सेवा नहीं हो पाए तो किसी को दुःख न हो ऐसा देखना चाहिए। भले ही नुकसान कर गया हो। क्योंकि वह पूर्व का कुछ हिसाब होगा। पर हमें उसे दुःख नहीं हो ऐसा करना चाहिए।
बस, यही सीखने जैसा प्रश्नकर्ता : दूसरों को सुख देकर सुखी होना वह?
दादाश्री : हाँ, बस इतना ही सीखना न! दूसरा सीखने जैसा ही नहीं है। दुनिया में और कोई धर्म ही नहीं है। यह इतना ही धर्म है, दूसरा कोई धर्म नहीं है। दूसरों को सुख दो, उसमें ही सुखी होओगे।